छत्तीसगढ़ में बस्तर अंचल के हल्बी-भतरी परिवेश में ‘जगार गीत’ या ‘धनकुल गीत’ गायन की सुदीर्घ परम्परा रही है। चूँकि ये गीत ‘धनकुल’ नामक तत वाद्य की संगत में गाये जाते हैं इसीलिये इन गीतों को ‘धनकुल गीत’ भी कहा जा सकता है; और चूँकि ‘धनकुल’ वाद्य का वादन विभिन्न 4 जगारों के गायन के समय ही होता है इसीलिये इन गीतों को ‘जगार गीत’ भी कहा जाता है।
वस्तुतः ये चारों जगार पूर्णतः वाचिक परम्परा के सहारे पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुखान्तरित होते आ रहे लोक महाकाव्य हैं। ये लोक महाकाव्य हैं आठे जगार, तीजा जगार (धनकुल), लछमी जगार और बाली जगार। धनकुल लोक वाद्य का प्रचलन हल्बी-भतरी परिवेश के अतिरिक्त ओड़िया (ओड़िसा के नवरंगपुर, कोरापुट, गंजाम जिले) तथा छत्तीसगढ़ी (छत्तीसगढ़ के काँकेर एवं धमतरी जिलों के पूर्वी भाग) परिवेश में भी देखने में आया है किन्तु गोंडी, धुरवी, परजी तथा दोरली परिवेश में नहीं। ‘धनकुल’ नामक इस तत वाद्य का वादन प्रायः दो जगार गायिकाएँ करती हैं। इन जगार गायिकाओं को ‘गुरुमायँ’ (अथवा गुरुमाय) कहा जाता है। हमें इन गायिकाओं का आभारी होना चाहिये कि इन्होंने लोक संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण उपादान को निष्ठा एवं यत्नपूर्वक अब तक अक्षुण्ण बनाये रखा है। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।
‘धनकुल’ वाद्य हाँडी, सूपा, और धनुष के संयोजन से तैयार अद्भुत लोकवाद्य है। धनुष का ‘धन’ और कुला (ओड़िया में कुला का अर्थ सूपा) का ‘कुल’ सम्भवतः इन्हीं दो शब्दों के मेल से बने ‘धनकुल’ शब्द को इस वाद्य के नामकरण के लिये उपयुक्त पाया गया होगा। जमीन पर दो ‘घुमरा हाँडियाँ’ ‘आँयरा’ या ‘बेंडरी’ के ऊपर तिरछी रखी जाती है। ये हाँडियाँ समानान्तर रखी जाती हैं। ‘आँयरा’ या ‘बेंडरी’ धान के पैरा (पुआल) से बनी होती है। तिरछी रखी ‘घुमरा हाँडियों’ के मुँह को ‘ढाकन सुपा’ से ढँक दिया जाता है। इसी ‘ढाकन सुपा’ के ऊपर ‘धनकुल डाँडी’ का एक सिरा टिका होता है तथा दूसरा सिरा ज़मीन पर। ‘धनकुल डाँडी’ की लम्बाई लगभग 2 मीटर होती है। इसके दाहिने भाग में लगभग 1.5 मीटर पर 8 इंच की लम्बाई में हल्के खाँचे बने होते हैं। गुरुमायें नियमित अन्तराल पर दाहिने हाथ में ‘छिरनी काड़ी’ से ‘धनकुल डाँडी’ के इसी खाँचे वाले भाग में घर्षण करती हैं तथा बायें हाथ से ‘झिकन डोरी’ को हल्के-हल्के खींचती हैं। घर्षण से जहाँ ‘छर्-छर्-छर्-छर्’ की ध्वनि निःसृत होती है वहीं डोर को खींचने पर ‘घुम्म्-घुम्म्’ की ध्वनि ‘घुमरा हाँडी’ से निःसृत होती है। इस तरह ‘घुम्म्-छर्-छर् घुम्म्-छर्-छर्’ का सम्मिलित संगीत इस अद्भुत लोक वाद्य से प्रादुर्भूत होता है। धनकुल वादन-गायन के पूर्व गुरुमायें इस वाद्य की श्रद्धा पूर्वक पूजा-अर्चना करती हैं।
प्रस्तुत अंश ‘आठे जगार’ जिसे ‘अस्टमी जगार’ भी कहा जाता है, से लिया गया है। यह, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, भगवान श्रीकृष्ण की लोक में प्रचलित अलिखित महागाथा है। वस्तुतः इसे अन्याय पर न्याय की विजय-गाथा कहा जा सकता है। भगवान श्री कृष्ण की कथा के लोक-रूप का गायन इस जगार के अन्तर्गत किया जाता है। इसका आयोजन जन्माष्टमी के प्रातः काल आरम्भ होता है और दूसरे दिन प्रातः काल समापन। हल्बी जनभाषा में गाया जाने वाला यह जगार प्रचलन से दूर होता जा रहा है। यही कारण है कि इस जगार की गुरुमायें भी कम ही रह गयी हैं। इसका प्रचलन प्रायः जगदलपुर तहसील के ही कुछ भागों में है। सम्भाग के अन्य क्षेत्रों में इसके गायन-आयोजन की बात सुनने में नहीं आती।
गुरुमाय केलमनी और हीरामनी द्वारा गायी गयी यह महागाथा 11 अध्यायों में संयोजित है तथा इसके कुल 1112 पद हैं जिनमें चाखना गीतों को छोड़ कर 5092 गीत पंक्तियाँ है। गायन की कुल अवधि है लगभग 8 घन्टे। यहाँ इस लोक महाकाव्य के दसवें अध्याय के कुल 170 पदों में से महज 17 पद (मूल के साथ-साथ हिन्दी अनुवाद भी) प्रस्तुत हैं। गुरुमाय भानमती और हीरामनी ने इस जगार का गायन सीखा अंचल की सुप्रसिद्ध और वरिष्ठतम गुरुमाय देवला से।
इस अध्याय का कथा-सार इस तरह है :- किरिस्ना कालिंदी नदी में जा नाग को नाथ कर वापस आते हैं तब जसुदा रानी उन्हें डाँटती हैं। इस तरह कुछ दिन बीत जाते हैं और सावन-भादों का चन्द्रमा उदित होता है। तब किरिस्ना जसुदा रानी से अस्टमी बरत के विधान के विषय में पूछते हैं। इस पर जसुदा रानी अपनी अनभिज्ञता प्रकट करती हैं। तब किरिस्ना आधी रात में बन्दी-गृह में जाते हैं जहाँ देबकी और बसुदेब बन्दी हैं। वे वहाँ पहुँच कर देबकी माता को ‘माँ’ कह कर पुकारते हैं। इससे देबकी की नींद खुल जाती है और वे उनसे आने का कारण पूछती हैं और कंस के अत्याचारों से उन्हें परिचित कराती है। किरिस्ना देबकी से अस्टमी बरत के विधान के बारे में पूछते हैं जिसे देबकी विस्तार से बताती हैं। तब किरिस्ना वहाँ से वापस हो जाते हैं और देबकी के बताये अनुसार अस्टमी बरत की तैयारी करते हैं।
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आलेख, अनुवाद व संकलन : श्री हरिहर वैष्णव
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प्रस्तुत है …
गुरुमाय भानमती और हीरामनी द्वारा प्रस्तुत
अन्याय पर न्याय की विजय-गाथा
आठे जगार
अधया 10 किरिस्ना चो खेलतो-बाड़तो 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 |
अध्याय 10 किरिस्ना का खेलना-बढ़ना |
क्षेत्र : बस्तर (छत्तीसगढ़)
भाषा : हल्बी
गीत-प्रकार : लोक गीत
गीत-वर्ग : आनुष्ठानिक गीत, जगार गीत, (स) आठे जगार
गीत-प्रकृति : कथात्मक, लोक महाकाव्य
गीतकार : पारम्परिक
गायन : गुरुमाय भानमती एवं हीरामनी (ग्राम सोनारपाल, तहसील जगदलपुर, बस्तर)
ध्वन्यांकन : 2006
ध्वन्यांकन एवं संग्रह : हरिहर वैष्णव
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जगार सुन के कईसे लागिस बताये बर झन भुलाहु संगी हो …
संगी मन के गोठ …