लोकगाथा.

अनुक्रम
परिचय
लोकगायकों की प्रस्तुतियाँ

 

भुमिका
लोकगाथा शब्द अंग्रेजी शब्द ‘Ballad’ – ‘बैलेड’ का समानार्थी है। ‘बैलेड’ के लिए हिंदी में ग्रामगीत, नृत्यगीत, आख्यान गीत, वीरगाथा, वीर गीत, वीर काव्य आदि कई शब्दों में से कोई भी शब्द ballad के अर्थ को ठीक तरह व्यक्त नहीं करता है। इन्साक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका के अनुसार इंग्लैंड में ‘बैलेड’ उस काव्य का नाम है, जिसमें सीधे-सादे छंदों में कोई सीधी सरल कथा कही गयी हो। विभिन्न विद्वानों ने अंग्रेजी शब्द ‘बैलेड’ के विभिन्न अर्थों एवं प्रयोगों का विश्लेषण करने के उपरांत यही निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि लोकगाथा ही उसका सबसे उपयुक्त एवं सार्थक नाम हो सकता है। लोकगाथा वस्तुतः मानव समाज का आदिम साहित्यिक रूप है। ऋग्वेद के कुछ संवाद सूक्तों और वाराशंसी गाथाओं को प्राचीनतम लोकगाथा माना जा सकता है। पुराणों और महाभारत में भी इसप्रकार कि लोकगाथाएं शिष्ट साहित्य का रूप धारण कर समाविष्ट हो गयी हैं। भारत कि विभिन्न भाषाओं में जो लोकगीत पाये जाते हैं, उन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैं। प्रथम प्रकार के वे गीत हैं, जो आकार में छोटे होते हैं, जिनमें कथानक का आभाव होता है और जिनकी मुख्य विशेषता गेयता है। दूसरे प्रकार के वे गीत हैं जो आकार में बड़े हैं, जिनमें कथानक की प्रधानता के साथ ही गेयता भी है। काव्य की भाषा में इन्हें मुक्तक और प्रबंध-काव्य कह सकते हैं। संस्कार तथा ऋतु सम्बन्धी गीत प्रथम कोटी में आते हैं और आल्हा उदल, भरथरी, चंदैनी और ढोला-मारू आदि के गीत द्वितीय श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इसप्रकार प्रथम प्रकार के गीतों को ‘लोकगीत’ तथा द्वितीय प्रकार के गीतों को ‘लोकगाथा’ कहा जाता है।

लोकगाथाओं की उत्पत्ति
लोकगाथाओं की उत्पत्ति के विषय में अनेक विद्वानों ने अपने-अपने अनुमान प्रस्तुत किए है, परन्तु किसी ने प्रामाणिक खोज नहीं उपस्थित किया हैं। सभी ने कल्पना और अनुमान से काम लिया है। वास्तव में लोकगाथाओं की उत्पत्ति, एक अत्यंत जटिल विषय है। कठिनाई का सबसे प्रमुख कारण यह है कि लोकगाथाओं की कहीं भी हस्तलिखित प्रामाणिक प्रति नहीं मिलती। यह अनुमान है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ, नृत्यों, गीतों एवं गाथाओं का विकास हुआ होगा। उस समय लेखन कला का विकास नहीं हुआ था, अतएव हमें मौखिक परम्परा का ही इतिहास प्राप्त होता है। मौखिक परम्परा के द्वारा ही लोकगाथाओं ने लोकमत कि अभिव्यंजना कि है। मौखिक परम्परा के कारण ही लोकगाथाएं एक रहस्यात्मक वस्तु बन गई हैं। महाकवि गेटे ने एक स्थान पर लिखा है कि – “जातिय गीतों एवं लोकगाथाओं कि विशेष महत्ता यह है कि उन्हें सीधे प्रकृति से नव्यप्रेरणा प्राप्त होती है। वे उन्मेषित नहीं कि जाती वरन् स्वतः एक रहस-स्रोत से प्रवाहित होती है।”

लोकगाथा के उदभव के ऐतिहासिक अध्ययन में जो दूसरी कठिनाई है, उसका एक मनोवैज्ञानिक करना है। समाज का उच्चस्तर सामान्य लोकहृदय की निश्छल और निरलंकार अभिव्यंजना को सदा से असंस्कृत, काव्यात्मकता से च्युत तथा गंवार मानता था। इस विकृत आदर्शवाद के फलस्वरूप शताब्दियों से मौखिक परम्परा में रक्षित लोकगाथाओं की ओर हमारी दृष्टि गयी ही नहीं। भारतीय साहित्यकार एवं मनीषी लोकहृदय को तो भली-भांति समझते थे, परंतु वे देववाणी संस्कृत अथवा राजभाषा को ही उतरोत्तर परिष्कृत एवं परिमार्जित करने में इतने अधिक व्यस्त थे की उन्हें दूसरी ओर दृष्टि फेरने का समय ही नहीं मिला। जब एक राष्ट्र में शिक्षा का प्रसार होने लगता है तो वह अपने मौखिक साहित्य का अनादर करने लगता है अपने मौखिक साहित्य को अपनाने में लोग लज्जा का अनुभव करते हैं, और इसप्रकार प्रगतिवान संस्कृति आश्चर्यजनक ढंग से मौखिक साहित्य को नष्ट कर डालती हैं। ऐसी परिस्थिति में लोकगाथाओं की उत्पत्ति के विषय में विचार करना वास्तव में जटिल समस्या है।

प्रसिद्ध जर्मन भाषा शास्त्री ग्रिम महोदय के अनुसार लोकगाथा लोकजीवन की अभिव्यक्ति हैं। किसी भी देश के समस्त निवासी (फोक) ही लोकगाथाओं की सामूहिक रचना करते है। आदिम अवस्था से ही प्रत्येक व्यक्ति सामूहिक रूप से नृत्य, संगीत, गीतों एवं लोकगाथाओं की रचना में लगे हुए है।

एफ.जे.चाइल्ड के अनुसार लोकगाथाओं में उसके रचयिता के व्यक्तित्व का सर्वथा अभाव रहता है। गाथा का प्रथम गायक लोकगाथा की सृष्टि कर जनता के हाथों में इन्हें समर्पित कर स्वयं अंतर्निहित हो जाता है। मौखिक परम्परा के कारण उसकी वाणी में अन्य व्यक्तियों एवं समूहों की वाणी भी मिश्रित होती जाती है। यहाँ तक कि प्रथम रचना का रंगरूप ही बदल जाता है। उसमें नये अंश जोड़ दिये जाते हैं तथा पुराने अंश छोड़ भी दिये जाते है। घटनाओं में भी परिवर्तन कर दिया जाता है। इसप्रकार वह रचना व्यक्ति की न होकर सम्पूर्ण समाज की हो जाती है। आधुनिक समय में यह मत सर्वमान्य हो गया है। इसप्रकार लोकगाथाओं की यह धारा अक्षुण्ण रूप से सदैव प्रवाहित होती रहती है उसका कभी अंत नहीं होता।

लोकगाथाओं की उत्पत्ति के सम्बंध में भारत के विद्वानों का मत है – गीत स्रष्टा स्त्री-पुरुष दोनों हैं, परंतु ये स्त्री-पुरुष ऐसे हैं जो कागज कलम का उपयोग नहीं जानते हैं। यह संभव है कि एक गीत कि रचना में बीसों वर्ष और सैकड़ों मस्तिष्क लगें हों।

इसप्रकार लोकगाथाओं की उत्पत्ति के विषय में विविध विद्वानों के प्रतिपादित सिद्धांतों का अनुशीलन करने से हमें प्रमुख रूप से तीन तत्व मिलते हैं – प्रथम, लोकगाथाएँ मौखिक परम्परा की ही वस्तु है। द्वितीय, लोकगाथाएँ सम्पूर्ण समाज की निधि हैं। तृतीय, लोकगाथाएँ यदि व्यक्तिगत रचनाएँ हैं तो उनमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण अभाव है। लोकगाथाओं पर लोक अथवा समाज के अधिकार को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है। यद्यपि इधर अनेक व्यक्तियों ने इन लोकगाथाओं से अनुचित लाभ उठाया है, उन्हें अपने नाम से प्रकाशित कराया है तथा उसमें स्वयं की भी रचनाएँ जोड़ दी हैं। परंतु इसमें लोकगाथाओं के सहज स्वभाव को कोई नष्ट नहीं कर सका है।

लोकगाथाओं की विशेषता
लोकगाथाओं की प्रमुख विशेषता है, उसका लंबा कथानक। प्रायः सभी लोकगाथाओं का स्वरूप विशाल होता है। लोकगाथा के अन्तर्गत एक कथा का होना अत्यंत आवश्यक है। यह कथा चरित्रों के जीवन का सांगोपांग वर्णन करती है, जिसके परिणामस्वरूप लोकगाथा वृहद हो जाती है। लोकगाथाओं के वृहद होने का दूसरा कारण है सम्पूर्ण समाज का सामूहिक सहयोग। प्रत्येक व्यक्ति उसमें कुछ न कुछ जोड़ता ही है। भारतीय लोकगाथाएँ अधिकांश रूप में लंबे कथानक वाली ही हैं, इनका आकार महाकाव्य की भांति होता है। लोकगाथाएँ नाटक के अंतिम भाग से प्रारम्भ होती है; तथा बिना किसी निर्देश के चरम सीमा पर पहुँचती हैं। कथा का आरंभ भी अकस्मात हो जाता है। उसमें किसी परिचय या भूमिका का विधान नहीं मिलता। लम्बा कथानक ही लोकगाथाओं को लोकगीतों से पृथक करता है। लोकगीत भावना प्रधान होते हैं, उसमें जीवन के किसी अंश की ही भावपूर्ण व्यंजना होती है, इसीकारण लोकगीत छोटे होते हैं, जबकि लोकगाथाओं का कर्तव्य होता है कथा कहना, अतएव वे लम्बी होती हैं। लोकगाथाओं के भौगोलिक वर्णनों से उनके ऐतिहासिक सत्य का केवल आभास होता है। लोकगाथाओं के रचयिता को इतिहास-निर्माण की चिंता नहीं रहती। वस्तुतः उनकी ऐतिहासिकता, प्रामाणिकता संदिग्ध है और इतिहास में उनका महत्व बहुत कम है।

छत्तीसगढ़ की लोकगाथाएँ
छत्तीसगढ़ की आत्मा फुट पड़ती है, यहाँ गूंजने वाले लोक-गीतों में, तीज-त्योहारों में तथा कही जाने वाली लोक-कथाओं में। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ को, उसकी आंचलिक संस्कृति को यदि एक साथ देखना चाहें तो यहाँ प्रचलित लोकगाथाओं में देखा जा सकता है, जिसमें छत्तीसगढ़ के लोकविश्वास, लोकधर्म, आचार-संस्कार आदि सहजतः प्राप्त होते हैं।

वैसे तो छत्तीसगढ़ में प्रचलित अधिकांश लोकगाथाएँ अन्य अंचलों में भी किसी-न-किसी रूप में प्रचलित हैं, किंतु छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी संस्कृति अपेक्षाकृत अधिक मुखर है। यहाँ अन्य क्षेत्रों की लोकसम्पदा को इतने आदर से ग्रहण किया है की वह उसकी निजी निधि बन गयी है। तात्पर्य यह कि विभिन्न अंचलों में प्रचलित लोकगाथाएँ छत्तीसगढ़ में आकर उसकी अपनी हो गयी है। वस्तुतः लोकसाहित्य किसी क्षेत्र विशेष की सम्पत्ति न होकर सर्वमान्य का होता है।

मिथकों और पौराणिक कथाओं को छत्तीसगढ़ की लोकगाथाओं ने अपने ही ढंग से अपनी स्मृति में रखा। इन गाथाओं में पौराणिक व ऐतिहासिक कथाओं के पात्र इतने जीवंत हैं कि अक्सर बोलियों की समझ का प्रश्न बेमानी हो जाता है। तीजन बाई की पण्डवानी ने देश विदेश में इसे बार-बार साबित किया। पण्डवानी यानी पांडवों की कथा यानी महाभारत। तीजन बाई पण्डवानी की कापालिक शैली की गायिका हैं। इसकी एक दूसरी शैली भी है, जिसे वेदमती कहा जाता है। यह शैली भी बहुत लोकप्रिय है। झाडूराम देवांगन ने इस शैली को दुनिया भर में मशहूर किया है। बसदेवा गीतों में आज भी सरवन गाथा (श्रवण कुमार की कथा) लोकप्रिय है। इसके अलावा कृष्ण, मोरध्वज राजा और कर्ण की कथाएं भी बसदेवा गीतों में हैं। भरथरी, चनैनी, आल्हा, देवारगीत, ढोलामारू, लोरिक चन्दा व बांस गीत इसकी कड़ियाँ हैं। ज्यादातर गाथा पौराणिक पात्रों को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखे हुए हैं।

बिलासपुर जिले में प्रचलित ‘लक्ष्मण जती’ (राजा बिसरा) महाकाव्य व ढोलामारू की गाथा, देवारों में प्रचलित ‘सीताराम नाइक’ की गाथा, पनिकाओं में लोकप्रिय ‘बकावली’ लोकगीत व दुर्ग जिले में प्रचलित ‘लोरिक चंदैनी’ ऐसे महाकाव्य हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ के गौरवशाली अतीत का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। इतिहासकार बाबू रेवाराम के अनुसार दसवीं शताब्दी में रतनपुर के राजा जाजल्लदेव प्रथम सुप्रसिद्ध योगी व दार्शनिक गोरखनाथ के शिष्य थे। गोरखनाथ का एक उलटबासी गीत आज भी बस्तर में गाया जाता है।

(प्रस्तुत आलेख में डॉ.जगदीश पियूष, विनोद वर्मा के शब्दों को पिरोया गया है, आपका आभार… धन्यवाद)

 

लोकगायकों की प्रस्तुतियाँ
यह खण्ड छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोकगाथाओं पर केंद्रित है, जहाँ आप छत्तीसगढ़ के लोकगायकों द्वारा प्रस्तुत विभिन्न लोकगाथाओं में समाहित रोमांच और रोमांस के साथ-साथ लोकसंस्कृति के विभिन्न पहलुओं से परिचित होंगे…

भरथरी
रेखादेवी जलक्षत्री का भरथरी गायन
प्रसंग 1. राजा का जोगी वेष में आना (01 जनवरी 2011)
प्रसंग 2. चम्पा दासी का जोगी को भिक्षा देना (04 जनवरी 2011)
प्रसंग 3. चम्पा दासी द्वारा राजा को पहचानना (07 जनवरी 2011)
प्रसंग 4. रानी का चम्पा दासी को सजा देना (10 जनवरी 2011)
प्रसंग 5. रानी से चम्पा दासी के लिए विनती (14 जनवरी 2011)
प्रसंग 6. शंकर पूजा, चम्पा को शंकर दर्शन (17 जनवरी 2011)

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