एसे एसे मँडई कोंडागाँव चो … Ese Ese Mandai Kondagaon Cho

धान की फसल कट कर खलिहान में आ गयी और मिंजाई हो जाने के साथ ही बस्तर अंचल ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में मड़ई (मेला) लगने का सिलसिला चल पड़ता है। बस्तर अंचल के हल्बी-भतरी-बस्तरी परिवेश में इसे मँडई उच्चारित किया जाता है। बस्तर अंचल में दरअसल मँडई को “देव बजार” भी कहा जाता है और वस्तुतः यह देवी-देवताओं का ही वार्षिक मिलन-स्थल होता है। सरगीपाल पारा, कोंडागाँव निवासी लुदरुराम कोराम से सुनी किंवदंती के अनुसार पहली बार मँडई का आयोजन बासू नामक गाँयता के निर्देशानुसार वर्षों पूर्व आरम्भ हुआ था। आरम्भ में यह आयोजन बस्तर नामक गाँव में हुआ और उसके बाद परगनों और गाँवों में। बस्तर अंचल में भरने वाली मँडइयों में सर्वाधिक प्रसिद्ध रही हैं घोटपाल (गीदम), रामाराम, मर्दापाल, नारायणपुर, कोंडागाँव, फरसगाँव आदि की मँडई।

कोंडागाँव की मँडई के विषय में लिखने के पूर्व ही मेरी निगाह आदरणीय भाई श्री महेश पाण्डे द्वारा लिखित एक आलेख पर पड़ गयी और जब मैंने उसे पढ़ा तो मुझे लगा कि मैं जो कुछ भी लिखूँगा वह दुहराव ही होगा। इसीलिये मैंने तय किया कि बजाय इसके कि मैं कुछ लिखूँ, क्यों न उनका ही आलेख इस गीत के साथ प्रस्तुत कर दिया जाये। तब मैंने उनसे उनका यह आलेख प्राप्त किया और उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

अपने परिचितों के बीच गीतकार, संगीतकार, गायक, रंगकर्मी और फिल्मकार के रूप में जाने-पहचाने जाने वाले किन्तु दुर्भाग्यवश उपेक्षा के शिकार महेश पाण्डे जी सेवानिवृत्त प्रधान पाठक हैं। परिश्रमी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी किन्तु अवसर से वंचित। उन्होंने अपने स्वयं के व्यय पर नशामुक्ति, साक्षरता एवं जलग्रहण पर स्थानीय हल्बी लोकभाषा में विडियो फिल्मों का भी निर्माण और निर्देशन किया और शासकीय तौर पर उनके प्रदर्शन की अपेक्षा में सम्बन्धित सरकारी विभागों के चक्कर पर चक्कर काटते रहे किन्तु किसी ने भी उनकी एक नहीं सुनी। बहरहाल, गीत सुनने से पहले क्यों न कोंडागाँव की मँडई पर स्व.डिबुश्वर कौशिक, तत्कालीन ग्राम पटेल, मरार पारा, कोंडागाँव से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया आदरणीय भाई महेश पाण्डे जी का यह महत्वपूर्ण आलेख पढ़ लिया जाये :

मँडई कोंडागाँव की

महेश पाण्डे

प्रति वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा के एक सप्ताह पूर्व जब किसान अपने खेतों की फसल काट कर कटाई-मिंजाई से निवृत्त हो जाते हैं और आराम का वक्त होता है तब प्रथम पूजा माँ शीतला की करते हैं तथा माता जात्रा का शुभारम्भ भी करते हैं। माँ शीतला की स्वीकृति प्राप्त कर कोंडागाँव मँडई के लिये मुनादी की जाती है।

मंदिरों का प्रभार एवं पूजा का अधिकार

मंदिरों का प्रभार जिन-जिन समाजों को सौंपा गया है, उन समाजों के व्यक्ति पुजारी के रूप में सेवा में संलग्न रहते हैं। इनका विवरण इस तरह है:
01. मावली मंदिर : गन्नूराम (गोंड समाज)
02. शीतला मंदिर : धनेश्वर पटेल (मरार समाज)
03. कुँवर बाबा मंदिर : बुधमन (राऊत समाज)
04. रेवागड़िन मंदिर : बैसाखू (मुरिया समाज)
05. हिंगलाजीन मंदिर : मुन्ना (गाँडा समाज)
06. देसमातरा मंदिर : साँवत (गोंड समाज)
07. समिया व चौरासी देव : गोपाल पटेल (मरार समाज)।

समिया व चौरासी देवियाँ मरार जाति की इष्ट देवी हैं। इसके साथ ही ये इस गाँव की भी इष्ट देवी हैं। इन्होंने ही कोंडागॉव में सभी देवी देवताओं की स्थापना की है। इनका वास सभी मंदिरों में है। समिया देव का मूल मंदिर कोंडागॉव के रोजगारीपारा स्थित स्व. डिबुश्वर पटेल के घर के नजदीक है। कहते हैं कि समिया देव के भीतर बलि देना प्रतिबंधित है। यह भी कहा जाता है कि मरार समाज को देवी संचालन का अधिकार बस्तर महाराजा से प्राप्त है। यही कारण है कि इस समाज द्वारा यह कार्य बिना किसी विवाद के आज तक जारी है।

कोंडागाँव में सम्पन्न होने वाली मँडई निम्न क्रम से सम्पन्न होती है :

जतरा (जातरा) : मँडई की परम्परा देवी-देवताओं की पूजा से जुड़ी है। और यही परम्परा कोंडागाँव की मँडई में भी देखने को मिलती है। यहाँ की मँडई मंगलवार को ही होती है। यही दिन मँडई के लिये वर्षों से तय है। इस दिन को “देव बिहरनी” कहते हैं। ‘देव बिहरनी’ दिवस की पूर्व संध्या अर्थात् सोमवार की रात में मेला के निर्विघ्न सम्पन्न होने, सुख-शांति बने रहने और कृपा बनाये रखने की कामना करते हुए तथा भूल-चूक के लिये क्षमा-याचना करते हुए मेला-स्थल में स्थित दंतेश्वरी मावली मंदिर में ‘जतरा (जातरा)’ सम्पन्न होता है। बाजार-स्थल में स्थित सभी मंदिरों में पूजा-अर्चना की जाती है। इस पूजा के अवसर पर कोंडागाँव के कोटवार, पटेल, सिरहा, पुजारी, दियारी और अन्य गणमान्य नागरिक उपस्थित रहते हैं।

देव बिहरनी : मंगलवार को “देव मँडई” होती है। इस अवसर पर देवी-देवता ‘बिहरते’ हैं, अर्थात् मँडई-स्थल की परिक्रमा करते हैं। ‘बिहरना’ शब्द हिन्दी के विहार शब्द से प्रादुर्भूत है। ‘देव बिहरनी’ का कार्यक्रम ग्राम प्रमुख एवं प्रशासन के संयुक्त सहयोग से संपन्न होता है। इस दिन जिला मुख्यालय के उच्चाधिकारी यथा कमिश्नर, कलेक्टर या एसडीएम अथवा तहसीलदार मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहते हैं और नगर के गणमान्य नागरिकों एवं धार्मिक प्रमुखों के साथ मिलकर देवी देवताओं को परिक्रमा करवाते हैं।

प्रमुख रूप से कोंडागाँव का प्रतिनिधित्व करने वाले देवी-देवता समिया देव, चौरासी देव, और बारापिकोड़ी वाला लाठ आगे चलते हैं। दूसरे क्रम में मावली का छतर (छत्र) और शीतला माता का छतर तथा अन्य अतिथि गाँवों से आये हुए सभी छतर रहते हैं। इन छतरों के पीछे रेवागड़िन की डोली, उसके पीछे सोनकुँवर, फुलकुँवर, आँगा और उसके पश्चात् कुर्सी पर विराजमान कुँअर बाबा होते हैं। इसके पश्चात् क्रमशः कोंडागाँव में 21 गाँवों से न्यौता में आये हुए देवी-देवताओं के आँगा, डोली, लाठ, गपली, बैरक आदि अपने-अपने प्रतीक-रूप में चँवर, घन्टा, शंख, नगाड़ा, मोहरी, तुड़बुड़ी आदि वाद्यों के गगनभेदी स्वर के साथ जय-जयकार करते हुए बिहरते हैं। बिहरने के वक्त मँडई-स्थल में उपस्थित जानकार लोग सावधान हो जाते हैं और श्रद्धा-भक्ति से पूरी धार्मिकता के साथ इस मनोहारी आकर्षक दृश्य का आनंद उठाते हैं। घर से लाये चावल और फूल देवी-देवताओं के ऊपर दूर से चढ़ा कर मंगल-कामना करते हैं। बिहरने के पूर्व मेला देखने आये विशिष्ट जनों को अतिथि स्वरूप फूलों की माला पहना कर मरार समाज के लोग स्वागत करते दिखते हैं। देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना पूर्ण कर लेने के बाद सभी मिल कर सर्वप्रथम छोटा भाँवर बिहर (छोटे वृत्त में परिक्रमा) कर बड़ा भाँवर (बड़े वृत्त) के रूप में सम्पूर्ण मेला-स्थल की परिक्रमा करते हैं और प्रारम्भ बिन्दु पर आ जाते हैं। आने के बाद इस स्थल में बने माचा (मचान) पर सभी छतरों को चढ़ा दिया जाता है। इसके पश्चात् सभी देवी-देवता एक वृत्त बना कर खड़े हो जाते हैं।

जुझारी एवं देव खेलनी : रावत जाति के दो व्यक्ति उस वृत्त के बीचों-बीच आ कर खँडसा (तलवार) और लकड़ी (लाठी) से जुझारी खेलते हैं। जुझारी का अर्थ है जूझना या युद्ध करना। यह युद्ध का प्रतीक होता है। इसके बाद रेवागड़िन की डोली को खेलने की अनुमति दी जाती है। कोंडागाँव के बाद पलारी ग्राम की देवी (पलारीकरिन) को खेलने की अनुमति दी जाती है। कहा जाता है कि पलारी ग्राम की लड़की और कोंडागाँव ग्राम के लड़के का आपस में विवाह सम्बन्ध है। अर्थात् दोनों गाँवों के बीच समधी का रिश्ता है। इसलिये छोटा भाँवर (छोटे फेरे) को पलारी के सम्मान में छोटे वृत्त में बिहराते (परिक्रमा कराते) हैं तथा बड़ा भाँवर (बड़े फेरे) को कोंडागाँव के नाम पर बिहराते (परिक्रमा कराते) हैं। परम्परा है कि पलारी ग्राम की देवी एवं देवताओं के आगमन के बिना ‘देव बिहरनी’ सम्पन्न नहीं होती। अर्थात् मुख्य अतिथि का सम्मान पलारी ग्राम को प्राप्त है। इसलिये ‘भोजारी’ (भोज के लिये दी जाने वाली खाद्य सामग्री) सभी ग्रामों से पहले पलारी को ही दिया जाता है। इसके बाद क्रमशः कोंडागाँव एवं अन्य गाँवों को। पलारी की गोंडिन देवी गपली पकड़ कर चिटकुली बजाती हुई नाचती है। दर्शक इस गोल घेरे में खड़े रह कर इस दृश्य का आनंद उठाते हैं। बहुत पहले से ही मानव-समाज की ही तरह देव समाज के भी नियम तैयार किये गये हैं। देवी-देवताओं से सम्बन्धित सारी जानकारी मुझे स्व. डिबुश्वर कौशिक जी से प्राप्त हुई थी।

‘देव मँडई’ के दूसरे दिन (बुधवार को) जिसे ‘बासी मँडई’ कहते हैं, मँडई देखने सुदूर क्षेत्रों से आदिवासियों का समूह अपनी-अपनी पारम्परिक नृत्य वेश-भूषा में संध्या वेला में मेला-स्थल के पास इकट्ठा हो कर विभिन्न नृत्यों का प्रदर्शन करते हैं। कुछ वर्षों बाद इसे जनपद पंचायत के द्वारा प्रतियोगितात्मक रूप दे दिया गया और प्रोत्साहन स्वरूप पुरस्कृत किया जाता है। मँडई की सारी व्यवस्था नगरपालिका परिषद् द्वारा की जाती है। इसी तरह पुलिस विभाग द्वारा सुरक्षात्मक दृष्टि से मेला स्थल में अस्थायी चौकी बनायी जाती है। विभिन्न विभागों द्वारा स्टाल लगा कर प्रदर्शनियाँ लगायी जाती हैं।

टीप : यह आलेख स्व. डिबुश्वर कौशिक, तत्कालीन ग्राम पटेल, मरार पारा, कोंडागाँव से प्राप्त जानकारी के आधार पर तैयार किया गया है।

© सर्वाधिकार सुरक्षित

आलेख : श्री महेश पाण्डे

 

 


जन्म : 01.03.1946, विश्रामपुरी (बस्तर-छ.ग.)
शिक्षा : हायर सेकेण्डरी, बी.टी.आई.

विशेष : हल्बी गीतों का संग्रह ‘भोजली’ प्रकाशित एवं इसी नाम से हल्बी गीतों का आडियो कैसेट भी आ चुका है। शैक्षिक-सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय सहभागिता।

सम्पर्क : शीतला पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर।
मोबाइल : 94061-51650

 

यह था स्व. डिबुश्वर कौशिक, तत्कालीन ग्राम पटेल, मरार पारा, कोंडागाँव से प्राप्त जानकारी के आधार पर आदरणीय भाई महेश पाण्डे जी द्वारा तैयार आलेख। और अब इस गीत के विषय में…

इस गीत के गीतकार खीरेन्द्र यादव (जन्म : 08.05.1972, कोंडागाँव, बस्तर-छ.ग.) बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। वे हल्बी के उभरते हुए गीतकार, गायक और रंगकर्मी हैं। पिछले लगभग 20 वर्षों से वे बस्तर के लोक संगीत और रंगकर्म से जुड़े हुए हैं। ‘जगार सांस्कृतिक समिति’ एवं अन्य लोक कला संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। इस बीच ‘सुकसी पुड़गा’ नामक आडियो कैसेट और ‘चापड़ा चटनी’ नामक विडियो एलबम भी प्रकाश में आ चुका है। इन दिनों वे काष्ठ शिल्प से भी जुड़ गये हैं और विभिन्न नगरों/महानगरों में उनके शिल्प प्रदर्शित होने लगे हैं।

 

तरुण पाणिग्राही (जन्म : 04.12.1972, कोंडागाँव, बस्तर-छ.ग.) बस्तर के उदीयमान लोक संगीतकार हैं। उनका परिवार बस्तर के लोक संगीत में रचा-बसा है। काका टंकेश्वर पाणिग्राही अपने समय के ख्यात गायक रहे हैं और अनुज भूपेश पाणिग्राही उनके समकालीन लोक संगीतकार हैं। ‘सुकसी पुड़गा’ एवं ‘मोचो मया’ तथा कई आडियो कैसेट और विडियो अलबम में तरुण ने बस्तर के मधुर लोक संगीत का जादू बिखेरा है।

 

दुष्यंत ढाली (जन्म : 10.08.1958, ढाका (बंगला देश)। 1989 में बस्तर आ बसे उदीयमान लोक गायक हैं। बंगला देश में जन्म होने के बावजूद पिछले तीन दशकों से बस्तर में बस जाने के कारण उनका परिवार बस्तर के लोक संगीत में रचा-बसा है। हल्बी गीतों के आडियो कैसेट ‘सुकसी पुड़गा’, विडियो एलबम ‘चापड़ा चटनी’ के अलावा हिन्दी गीतों के भी आडियो-विडियो कैसेट एवं एलबम (वेलेन्टाइन) में इनके हिन्दी गीत सम्मिलित हैं।

 

कामिनी श्रीवास्तव (जन्म : 1982, कोंडागाँव, बस्तर-छ.ग.) बस्तर की उदीयमान लोक गायिकाओं में स्थान रखती हैं। विभिन्न लोक कला संस्थाओं जुड़ कर इन्होंने बस्तर के लोक संगीत को प्रस्तुत किया है। इनके गाये गीत ‘मोचो मया’ एवं अन्य कई आडियो कैसेट और विडियो अलबम में सुने जा सकते हैं।

 

 

और अब प्रस्तुत है आज का गीत :

एसे एसे मँडई कोंडागाँव चो
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो
एसे एसे मँडई कोंडागाँव चो
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो।

एयँदे एयँदे मँडई कोंडागाँव चो
मके चूड़ी पिंधासे तुचो नाव चो
एयँदे एयँदे मँडई कोंडागाँव चो
मके चूड़ी पिंधासे तुचो नाव चो।

काजर लगाउन एयँदे टिकली सजाउन
काजर लगाउन एयँदे टिकली सजाउन
बिछिया लगाउन एयँदे पयँरी बजाउन
बिछिया लगाउन एयँदे पयँरी बजाउन
भरे बजार में चिन्हुन मके तुइ
भरे बजार में चिन्हुन मके तुइ
मके चूड़ी ऽ ऽ
मके चूड़ी पिंधासे तुचो नाव चो।

एसे एसे मँडई कोंडागाँव चो
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो।

मँडई बुलायँदे तुके खाजा खवायँदे
मँडई बुलायँदे तुके खाजा खवायँदे
झुलना झुलाउन तुके सरकस दखायँदे
झुलना झुलाउन तुके सरकस दखायँदे
हात के तुचो धरुन सँग ने मयँ
हात के तुचो धरुन सँग ने मयँ
तुके चूड़ी ऽ ऽ
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो।

एयँदे एयँदे मँडई कोंडागाँव चो
मके चूड़ी पिंधासे तुचो नाव चो।

पान खवायँदे तुके चटनी-चमन चो
पान खवायँदे तुके चटनी-चमन चो।
गोदना गोदायँदे हाते मयँ तो तुचो नाव चो
गोदना गोदायँदे हाते मयँ तो तुचो नाव चो।
मया चो बाँसुरी बजाउन मयँ
मया चो बाँसुरी बजाउन मयँ
तुके चूड़ी ऽ ऽ
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो।
एसे एसे मँडई कोंडागाँव चो
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो।

एयँदे एयँदे मँडई कोंडागाँव चो
मके चूड़ी पिंधासे तुचो नाव चो।

एसे एसे मँडई कोंडागाँव चो
तुके चूड़ी पिंधायँदे मोचो नाव चो।

एयँदे एयँदे मँडई कोंडागाँव चो
मके चूड़ी पिंधासे तुचो नाव चो।

ला ला ला ला ला ला ला ला ला
हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ

 

प्रस्तुत गीत का अनुवाद इस तरह है : तुम कोंडागाँव की मँडई में आना। मैं तुम्हें अपने नाम की चूड़ी पहनाऊँगा। (हाँ) मैं कोंडागाँव की मँडई में आऊँगी। तुम मुझे अपने नाम की चूड़ी पहनाना। (मैं) काजल लगा कर आऊँगी, टिकुली (माथे पर) सजा कर आऊँगी। (पाँवों में) बिछिया पहन कर आऊँगी। (पाँवों में) पैंरी (पैंड़ी) पहन कर उसे बजाती आऊँगी। भरे बाजार में तुम मुझे पहचान कर अपने नाम की चूड़ी पहनाना। (तुम) कोंडागाँव की मँडई में आना। (मैं) तुम्हें अपने नाम की चूड़ी पहनाऊँगा। (मैं) तुम्हें मँडई में घुमाऊँगा और तुम्हें खाजा (मिठाई) खिलाऊँगा। झूला झुलाऊँगा तुम्हें सरकस (भी) दिखाऊँगा। तुम्हारा हाथ पकड़ कर साथ में मैं तुम्हें चूड़ी पहनाऊँगा। (हाँ) मैं कोंडागाँव की मँडई में आऊँगी। तुम मुझे अपने नाम की चूड़ी पहनाना। पान खिलाऊँगा तुम्हें चटनी-चमन की। अपने हाथों में मैं तुम्हारे नाम का गोदना गोदवाऊँगी। प्रीत की बाँसुरी बजा कर मैं तुम्हें चूड़ी पहनाऊँगा। तुम कोंडागाँव की मँडई में आना।

वस्तुतः खीरेन्द्र यादव छत्तीसगढ़ी परिवेश से हैं और यही कारण है कि उनकी हल्बी में छत्तीसगढ़ी भाषा का पुट भी आ गया है। उदाहरण के तौर पर इस गीत में आये पयँरी, भरे बजार, चिन्हुन, खवायँदे और बाँसुरी जैसे छत्तीसगढ़ी और हिन्दी के शब्द आ गये हैं। इनकी जगह पैंड़ी, हाट, चिताउन, खुआयँदे और बाँवसी का उपयोग होना चाहिये था।

मेरी इस टिप्पणी को आलोचना की बजाय विनम्र ध्यानाकर्षण का प्रयास समझे जाने की प्रार्थना है।

आलेख, संकलन : श्री हरिहर वैष्णव

हरिहर वैष्णव

 

 

सम्पर्क : सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़।
दूरभाष : 07786-242693
मोबाईल : 76971 74308
ईमेल : hariharvaishnav@gmail.com

 

 


क्षेत्र : बस्तर (छत्तीसगढ़)
लोक भाषा : हल्बी
गीतकार : खीरेन्द्र यादव
रचना के वर्ष : 1995
संगीतकार : तरुण पाणिग्राही
गायन : दुष्यंत ढाली और कामिनी श्रीवास्तव
एल्बम : ‘चापड़ा चटनी’ विडियो एलबम, 2011

फोटोग्राफ : नवनीत वैष्णव

 

यहाँ से आप MP3 डाउनलोड कर सकते हैं

 

जगार सुन के कईसे लागिस बताये बर झन भुलाहु संगी हो …

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