हरियर हरियर … Hariyar Hariyar

मंगरोहन

एके तेल चढ़गे कुंवरि पियराय ।
दुवे तेल चढ़गे महतारी मुरझाय ।।
तीने तेल चढ़गे फूफू कुम्हलाय ।
चउथे तेल चढ़गे मामी अंचरा निचुराय ।।
पांचे तेल चढ़गे भईया बिलमाय ।
छये तेल चढ़गे भउजी मुसकाय ।।
साते तेल चढ़गे कुंवरि पियराय ।
हरदी ओ हरदी तैं साँस मा समाय ।।
तेले हरदी चढ़गे देवता ल सुमरेंव ।
मंगरोहन ल बांधेव महादेव ल सुमरेंव ।।

मंगरोहन शव्द का प्रयोग छत्तीसगढ़ी विवाह संस्कार के समय अवश्य ही किया जाता है। यह मंगरोहन न तो कोई देवता है, न ही जादू कि पुड़िया। पर इसके बिना छत्तीसगढ़ में विवाह संस्कार सम्पन्न ही नहीं होता। मंगरोहन कि स्थापना के अवसर पर गाए जाने वाले गीत मंगरोहन गीत के नाम से विख्यात है। इन गीतों को सुनते ही – वे सब लोग, जो कन्या की माँ बनने का वरदान लेकर आई हैं, दर्द, टीस बिछोह के दुःख व बेटी के पराए हो जाने की पीड़ा से भर जाती है। छत्तीसगढ़ की आंचलिक संस्कृति में “मंगरोहन” विवाह गीतों का गहरा आधार बनता है।

छत्तीसगढ़ की आंचलिक संस्कृति में यहां के रीति-रिवाजों, लोक गीतों उत्सवों का विशेष महत्व है। मूल छत्तीसगढ़ संस्कृति में विवाह संस्कार एक मोहक उत्सव है, जिसमें बेटी की विदाई की पीड़ा है, तो वर यात्रा की मोहक अदाकारी भी। बारात प्रस्थान के बाद एक रात का स्त्री राज्य होता है, जहां स्त्रियां पुरुषों का स्वांग करती हैं, सारी रात जगती हैं, नाचती-गाती हैं और फिर दूसरे दिन सप्तपदी। सात भंवरों के साथ सात वचन लेना और देना। बारात प्रस्थान से पूर्व मातृका पूजन में समस्त पितरों का आह्वान और उससे भी पूर्व मण्डपाच्छादन में “मंगरोहन” की स्थापना।

मंगरोहन स्थापना

छत्तीसगढ़ अंचल के विवाह संस्कार में “मंगरोहन” का विशेष महत्व है। यह मंगरोहन आर्य व अनार्य संस्कृति का संगम है। एक मिश्रित संस्कृति के प्रतीक “मंगरोहन” का क्या अर्थ है? यह “मंगरोहन” किस बात का प्रतीक है? दो बांसों से मंड़वा (मंड़प) बनाया जाता है। बांसों को आंगन की मिट्टी खोदकर गड़ाया जाता है। उन बांसों के पास मिट्टी के दो कलश रखे जाते हैं – जिसमें दिया जलता रहता है। उन्हीं बांसों के साथ नीचे जमीन से लगाकर, आम, डूमर, गूलर, या खदिर की लकड़ी की एक मानवाकृति बनाकर रख दी जाती है। दोनों बांसों के साथ आकृतियाँ स्थापित की जाती हैं। बांसों के ऊपर, पूरे आंगन में पत्तियों का झालर लटकाया जाता है। उस मानवाकृति वाली लकड़ी को ही “मंगरोहन” कहा जाता है। इसके बिना विवाह संस्कार सम्पन्न नहीं होता। अर्थात यहां की वैवाहिक क्रियाओं एवं विधियों में मंगरोहन की उपस्थिति अनिवार्य है।

“मंगरोहन” की भूमिका विवाह के साक्षी के रूप में होती है। विवाह के समय होने वाले अपशकुन को मिटाने के लिए “टोटका” के रूप में भी उसे प्रस्तुत किया जाता है। अर्थात मंगरोहन एक मांगल्य काष्ठ है, जिसे सामने रखने से विवाह संस्कार निर्विध्न सम्पन्न होता है।

“मंगरोहन” की स्थापना के साथ महाभारत की कथा किवदन्ती के रूप में जुड़ी है। जब गांधार नरेश अपनी पुत्री गांधारी का विवाह सम्बन्ध निश्‍चित करते हैं तब उस राजकुमार की मृत्यु हो जाती है। गांधारी के पिता ज्योतिषियों व पंडितों को ‘पत्रा बिचारने’ बुलाते हैं। वे पण्डित व ज्योतिर्विद गांधारी की जन्मकुंडली, भूत एवं भविष्य पिछला जन्म सभी पर विचार करते हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि गांधारी को डूमर (गूलर) का श्राप लगा है। उसी श्रापवश गांधारी का विवाह तय होते ही भावी पति कि मृत्यु हो गई। गांधार नरेश इस शाप से मुक्ति का उपाय पूछते हैं। ज्योतिर्विद एवं पण्डित एकमतेन कहते हैं कि गांधारी का विवाह पहले डूमर के साथ कर दिया जाय, फिर भावी पति के साथ। गांधारी का विवाह सम्बन्ध कहीं हो नहीं पा रहा था। सभी राज्यों के राजा भयभीत थे मृत्यु कि आशंका से। काल का भय किसे नहीं होता? भीष्म पितामह ने अंधे राजकुमार धृतराष्ट्र के लिए गांधारी का चुनाव करते समय पंडितों को पत्रा दिखाया – उन्होंने भी विचार किया कि श्राप मुक्ति संभव है।

इसप्रकार महाभारत में गांधारी के विवाह के समय, डूमर (गूलर) की मानवाकृति प्रथम बार बनाई गई, उससे गंधारी की भांवरे पड़ी, फिर धृतराष्ट्र के साथ भांवरे पड़ी। तब से लेकर आज तक मांगल्य-काष्ठ के रूप में अथवा श्राप या अपशकुन को दूर करने वाले प्रतीक चिन्ह के रूप में मंगरोहन को स्थापित करने की प्रथा चल पड़ी। छत्तीसगढ़ अंचल में यही किवदन्ती प्रसिद्ध है। मैंने महाभारत की मूल कथा में यह प्रसंग ढूंढ़ने का बहुत प्रयास किया, परन्तु किसी भी ग्रंथ में यह प्रसंग नहीं मिला। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में गांधारी के श्राप की कथा “बांसगीत” के साथ गयी जाती है, पंडवानी में संदर्भ निकालकर गायी जाती है। गांधारी को श्राप क्यों लगा था? यह कथा लोक जीवन में इस तरह प्रसिद्ध है…

गांधारी आँख में पट्टी बांधकर अपनी सखियों के साथ आंख मिचौनी खेल रहीं थी। संध्या समय चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ गई थी, क्योंकि पक्षी अपनी नीड़ की ओर लौट रहे थे। गांधारी संध्या के झुरमुट में आगे बढ़ती गई। पेड़ों की पत्तियों को टटोलती, सखियों के छुपने के भ्रम में गांधारी अनजाने एक अपराध कर बैठी। डूमर (गूलर) के वृक्ष की निचली टहनी में बैठा नर चिड़ा का चोंच (मुँह) गांधारी ने कसकर दबा दिया – सखि के भ्रम में तुरन्त चौंककर उसनें हाथ खोला, आँख की पट्टी खोली। क्या देखती है? मादा चिड़ी, नर चिड़ा के वियोग से व्याकुल जमीन पर चोंच मार मारकर नर चिड़ा के शरीर से लिपट रही है; उसका विलाप डूमर के वृक्ष को हिलाने लगा। कहीं से श्राप का स्वर उभरता है – वह ऊपर गूलर के वृक्ष की ओर देखती है।

गूलर (डूमर)

स्वर वहीं से आ रहा था। वन देवता का स्वर – “गांधारी विवाह निश्‍चित होते ही तेरे पति की मृत्यु हो जायेगी, तू जीवन भर अभिशप्‍त रहेगी, पति के सान्निध्य से वंचित नारी।” “नहीं… नहीं वनदेव, क्षमा कीजिए। मुझसे अनजाने यह अपराध हुआ, मुझे श्राप से मुक्त करो।” विलाप करती गांधारी का स्वर, उपवन के कोने-कोने में प्रतिध्वनित होने लगता है। सखियां उस प्रतिध्वनि से व्याकुल, चकित गांधारी को ढ़ूंढ़ती है। इधर वन देवता गांधारी के करुण व हृदयविदारक विलाप को सुनकर कुछ द्रवित होते हैं। कुछ क्षण पश्‍चात, शांत होने पर, वन देवता धीर-गंभीर स्वर में गांधारी को श्रापमुक्ति का उपाय बतलाते हैं – पहले डूमर के वृक्ष की डाल से तुम्हारा विवाह होगा, फिर वर से – तब तुम्हारे पति की मृत्यु नहीं होगी। परन्तु गांधारी विवाह के बाद तुझे जीवन भर आँख में पट्टी बांधनी होगी, तुझे पति का सान्निध्य मिलकर भी, दर्शन सुख नहीं होगा, और न ही तेरा पति तुझे देख पायेगा। तेरा सौंदर्य अभिशप्‍त रहेगा।”

वनदेवता का यह स्वर सखियों ने हृदय थाम कर सुना। गांधारी पत्थर की मूर्ति की तरह स्तब्ध, स्पंदनहीन सी पड़ी थी – सखियों ने उसे अवलम्ब देकर उठाया और अन्तःपुर में ले गई।

उक्त किवदन्ती मुझे मेरे श्‍वसुर स्व.सूबेदार जी ने सुनाई थी – आज से 15 वर्ष पूर्व। और आज से 15 माह पूर्व यही किवदन्ती बांसगीत गाने वाले एक फकीर ने गीतों की कड़ी में बांधकर सुनाई। मेरे श्‍वसुर महाभारत के प्रकांड विद्वान एवं छत्तीसगढ़ में पंडवानी के प्रवर्तक माने जाते थे। महाभारत के विभिन्न प्रसंगों से सम्बंधित एवं छत्तीसगढ़ में प्रचलित किंवदंतियों की चर्चा अक्सर वे मुझसे किया करते थे। गांधारी के “डूमर सराप” (गूलर का श्राप) वाली कथा भी उन्होंने ही बतलाई थी। लेकिन छत्तीसगढ़ी लोककथा के रूप में मैंने इसे एक फकीर बाबा से ही सुना। इस लोकगाथा का कुछ अंश इस प्रकार है –

डूमर तरी रोव-थे गांधारी माता
चिरई चुरगुन ओ
डूमर तरी बिलपथे गांधारी माता
चिरई चुरगुन ओ
कइसे जिआवंत बहिनी, तोर जोरी ल
सुरुज डूबे के बेरा
कइसे चाहकावंव, तोर परिनी ल
चन्दा उगे के बेरा
डूमर देवता अगिया गे, गांधारी ल सरापिस
जोरी बिन तोर जिनगी
गंधारी राजकुंवर ह, अपन भाग ल ठोंकिस
कइसे जोरी बिन जिनगी
पांव परके पूछिस –
कइसे सराप-ह जाही?
कइसे बनही जिनगी?
डूमर देवता ह बिचारिस, गभरागे बोलत-बोलत
नइ छूटइ मोर सराप
जोरी मिलही तोला, बिन देखे होही मिलाप
नइ छूटइ मोर सराप
अंधरा राजा के रानी, बनबे ते राजकुंवर
डूमर डारा तरी
परही पहिली भांवर तोर, डूमर संग राजकुंवर
डूमर डारा तरी
उतरही मोर, सराप, मया करही तोर जोरी
तोर मन मा छाही सराप
जिनगी भर तें उदास, बिन डोरी के तोर जोरी
तोर मन मा छाही सराप
डूमर डारा के गाथा ल जऊन गाही
मंडवा मा मंगरोहन बनाके ले जाही
बेटी जोरी तेखर राज करही
सुनइया मन मंगरोहन गीत गाही
डूमर डारा के गाथा
डूमर डारा के गाथा

वह फकीर गाथा की अन्तिम गीत कड़ी बार-बार दोहराने लगा। मुझे ऐसा लगा कि परंपरा से चली आ रही यह गांधारी गाथा धीरे-धीरे श्रुतिपरंपरा से परिमार्जित होती गई है।

कुछ भी हो वह “डूमर डारा” यानी की गूलर की टहनी “मंगरोहन” बनकर मांगल्य काष्ठ एवं विवाह के साक्षी का प्रतीक चिन्ह बन गई। अपशकुन या किसी शाप को मुक्त करने के लिए कन्या के जीवन को पूर्ण रूप से सुरक्षा प्रदान करने के लिए वह गूलर की टहनी प्रतिबद्ध, वचनबद्ध दिखाई देती है। इसी टहनी से बनी मानवाकृति मंगरोहन है।

“मंगरोहन” शब्द का अर्थ ज्ञात करने के लिए सीधे ढंग से हम शब्द तोड़ दें – मंग + रोहन। मंग यानी मग अर्थात रास्ता, राह। रोहन यानी रोहण अर्थात चढ़ना, आगे बढ़ना। मग शब्द संस्कृत के ‘मख’ शब्द का परिवर्तित रूप है। संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में ‘मख’ का अर्थ रेंगना या जाना दिया हुआ है। संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर में ‘मख’ का अर्थ यज्ञ दिया हुआ है।

“मंगरोहन” की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक धरातल, आध्यात्मिक प्रयोजन एवं पारंपरिक रूप को समझने के लिए हमें वैदिक काल के तह में पहुँचना होगा। वैदिक काल में आर्य यज्ञ करते थे। आर्य जब विजय प्राप्त करते थे, तो यज्ञ मंडप में एक खम्भा विजयकीर्ति के प्रतीक रूप में बनाकर खड़ा कर देते थे। पौराणिक काल, रामायण काल, महाभारत काल यानी कि उन सभी युगों में यज्ञ मंडप में एक खम्भा अवश्य गाड़ा जाता था। इस खम्भे को संस्कृत में ‘यूप’ कहते हैं। यूप – (पुं यु + प, दीर्घ) स्व.चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा लिखित संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ के 1957 के द्वितीय संस्करण में यूप का अर्थ है – मंडप का वह खम्भा जिसमें बलि का पशु बांधा जाता है। यह खम्भा या तो बांस का होता है, अथवा खदिर कि लकड़ी का। उसे विजय स्तंभ भी माना गया है। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोष के 1973 के तृतीय संस्करण में भी ‘यूप’ का अर्थ यज्ञीय स्थूवा बतलाया गया है।

1. यज्ञीय स्थूवा (जो प्रायः बांस या खैर कि लकड़ी की होती है) जिससे यज्ञीय पशु बांधा जाता है।
2. विजय स्तम्भ

स्पष्ट है, ‘यूप’ शब्द दो अर्थो में प्रयुक्त होता आया – एक तो विजय स्तम्भ के रूप में, दूसरा बलि देने के लिये उपयोग में लाए जाने वाले खम्भे, खूंटे के रूप में। अर्थात वैदिक काल से लेकर अब तक यज्ञदेवी के पास एक लकड़ी का छोटा सा स्तंभ अवश्य प्रयुक्त होता आया है – प्रतीक बदलते गए, भाव बदलते गए, पर स्तंभ ज्यों का त्यों रखा जाता रहा।

“यूप” शब्द के दोनों अर्थों को ग्रहण करता मंगरोहन नारी जीवन का पथ प्रशस्त करता है। पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में पुरुष नारी को जीतकर लाता है। नारी अपने उन भावों की बलि देती है जो उसे पिता, माता, बहन, भाई अर्थात मातृकुल/पितृकुल से जोड़ते हैं। एक बार वह जन्म लेती है माँ की कोख से, दूसरी बार उसका जन्म होता है विवाह मंडप पर – तेल हल्दी के लेपन (हरिद्रालेपन) के साथ। जिस क्षण पुरुष उसकी मांग में सिंदूर भरता है – उस क्षण वह नए व्यक्ति, नए परिवेश से जुड़ जाती है। कितना कष्ट होता है टूटने और जुड़ने के उस भावनात्मक क्षण में। नारी के कोमल मन की संवेदना, उसका समूचा व्यक्तित्व बदल दिया जाता है – और तब उस कष्टमय क्षण में उसका दूसरा जन्म होता है।

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में नारी को ‘एकजनमिया’ कहा जाता है। पुरुष का विवाह कई बार हो सकता है। पर नारी का विवाह एक ही बार होता है… और एक ही बार हल्दी का लेपन होता है। नारी का जनम भी उसे (मनुष्य योनि में) एक ही बार मिलता है, साक्षी है ‘मंगरोहन’

एक जनमिया जात ए नार
रोव थे भर के अंसुअन धार
एक जनमिया जात ए नार
बिराजे हे मंगरोहन महराज
सुन गिरय बहिन तोर ऊपर गाज
झिर झिर बरस थे अंसुअन धार
एक जनमिया तिरीया नार

एक गहरी विषादमय अनुभूति के साथ हल्दी लेपन आरम्भ होता है – ‘मंगरोहन’ महराज की साक्षी में। परन्तु इस हल्दी लेपन के पहले ‘मंगरोहन’ स्थापित करने की बात कहें। विवाह संस्कार में पहला नेग ‘चुलमाटी’ का होता है। स्त्रियां तालाब या नदी के तट पर जाती हैं – मिट्टी खोदने। जलाशय की पवित्रता शाश्वत है। जलाशय के तट में सर्वदा पूजा स्थल बनाया जाता है। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी, जलाशय के तट से लाई हुई मिट्टी से चूल्हा बनाया जाता है। उसी मिट्टी से, आंगन में दो बांस गाड़ते हैं। गूलर लकड़ी का मंगरोहन बनाकर इस बांस से बांध देते हैं। अर्थात हल्दी लेपन से पूर्व मंगरोहन मांगल्य-काष्ठ के रूप में स्थापित किया जाता है एवं मंगरोहन की विधिवत पूजा की जाती है। चौंक पूरकर वहाँ मिट्टी से रंगायित दो मंगल कलश रखे जाते हैं जिन पर दिया जलता रहता है – अनवरत रूप से।

मंगरोहन के स्थापना के लिए सात सुवासा (जीजा या फूफा) गड्डा खोदते हैं। बांस के समीप इस खोदी हुई भूमि में मंगरोहन के साथ हल्दी, सुपारी आदि भी डाली जाती है।

इस समय गाये जाने वाले पारंपरिक गीत में मंडप की शोभा तथा पीले-पीले बांस की शोभा वर्णित है, साथ ही मटकी अर्थात मिट्टी के कलश का जन्म स्थान कौन सा है? बांस का जन्म स्थान कौन सा है? – यह वर्णित है – उदाहरण देखिए

हरियर हरियर मंडवा दिखत है, पियर पियर बांस
कहांवर करसा तोर जनामन, कहाँ लिए अवतार
करिया भिंभोरा मोर जनामन, कुम्हरा घर लिए अवतार
हाटेन में मे-हर भंवर है
हरियर हरियर मंडवा दिखत है, पियर पियर बांस
कहांवर बासेन तोर जनामन, कंड़रा घर लिए अवतार
सुघ्घर अमली, सुघ्घर आमा, सुघ्घर सागर के पार

मंगरोहन गीत का दूसरा टुकड़ा यह भी है जिसमें कहा गया हा कि वृन्दावन से बांस मंगाया गया है तथा नया वन से कनई जिससे मंडप छाया है और वह मंडप धरती आकाश तक छा गया है।

नवा बन के हम कनई मंगायेन, वृन्दावन के बांसे हो
उही बांस के हम मंड़वा छायेन, छा-गेहे धरती अकासे हो

इस प्रकार मंगरोहन की स्थापना हल्दी लेपन से पूर्व की जाती है। हल्दी लेपन के समय का यह मार्मिक गीत कन्या व परिवारजनों के मन में वेदना का रोपण करता है।

एके तेल चढ़गे हो हरियर हरियर
मंड़वा मा दुलरू तोर बदन कुम्हलाय
कौन चढ़ाये तोर तन भर हरदी
अउ कोने देवै अंचरा के छांव
फूफू चढ़ाये तोर तन भर हरदी
अउ दाई देवै अंचरा के छांव

मंगरोहन स्थापना के साथ ही कन्या मानों अनजाने ही एक भावात्मक बंधन में बंधने लगती है। उसे बार-बार स्मरण दिलाया जाता है कि इस ममतामय बंधन, माता, पिता, भाई, बहन, बुआ सबको छोड़कर वह चली जाएगी – जैसे कि पुष्प अपने वृक्ष को छोड़कर अन्यत्र सुंगध बिखेरता है। कन्या का अगाध प्रेम पीड़ा का रूप धारण कर रुदन करने लगता है और वह निरंतर पीली पड़ती जाती है, हल्दी लेपन से शरीर पीला नहीं हो रहा है, वरन् माता, पिता, बुआ के बिछोह की कल्पना से शरीर पीला पड़ रहा है। हल्दी तो मंगरोहन को भी लगाया जाता है। कन्या का विवाह मानों पहले उससे करके – भावी अमंगल को दूर किया जाता है। वह मंगल का प्रतीक है, “टोटका” है। इस हल्दी की पहुँच तो सामान्य जन से लेकर राजा तक है। इसी संदर्भ में मंगरोहन गीत की एक और कड़ी …

चंदन कथे, चंदन कथे – मैं बड़े, मैं बड़े
हरदी कथे – तोर ले मैं बड़े
तैं तो चंदन, तैं तो चंदन राजदुआरे
मैं तो हरदी छोटे बरे मा

अर्थात चंदन कहता है – मैं बड़ा हूं। हल्दी कहती है – मैं बड़ी हूं क्योंकि चंदन तो राजाओं तक सीमित है, पर हल्दी तो अमीर गरीब सबको समान रूप से अपनी उपादेयता प्रदान करती है।

छत्तीसगढ़ अंचल के इस पूरे विवाह संस्कार में ‘मंगरोहन’ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। यह इस तरह विवाह की रीति व सामाजिक परंपरा में समाविष्ट हो गया है कि इसके औचित्य पर आज तक प्रश्न नहीं किया गया और न ही इस परंपरा के उद्‍भव को जानने का प्रयास ही किया गया। ‘मंगरोहन’ स्थापना कि परंपरा के साथ जुड़ी हुई गांधारी कि कथा किंवदन्ती ही सही पर यह इतनी मोहक व भावप्रवण कथा है कि हम इसे छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति से काटकर अलग नहीं कर सकते। लोक संस्कृति में तो दंतकथाओं का विपुल भंडार होता है। यह शापित गान्धारी कि कथा भी छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की अमूल्य धरोहर है, जिसके कारण ‘मंगरोहन’ की महत्वपूर्ण भूमिका जीवित व प्रचलित है।

 

डॉ.सत्यभामा आडिल

© सर्वाधिकार सुरक्षित

 

 

प्रस्तुत आलेख लिखा है डॉ.सत्यभामा आडिल जी ने। डॉ.सत्यभामा आडिल का जन्म ग्राम पंदर, जिला दुर्ग में दिनांक 1 जनवरी 1944 में हुआ। पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से 1965 में हिन्दी में एम.ए. तथा डॉ.बलदेव प्रसाद मिश्र के निर्देशन में शोध प्रबंध “संत धर्मदास : व्यक्तित्व व कृतित्व” पर 1972 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आपका विवाह श्री मनहर आडिल (मानद् कुलपति कृषक गुरुकुल विश्वविद्यालय, राजिम) के साथ हुआ है।

सम्प्रति : सेवानिवृत्त प्राध्यापक (महाविद्यालय)। शासकीय दू.ब.महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रायपुर में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में हिन्दी अध्ययन मण्डल की अध्यक्ष एवं कला संकाय की अधिष्ठाता व कार्यपरिषद की सदस्य, आकाशवाणी रायपुर की सलाहकार समिति की सदस्य रह चुकी हैं। आपके निर्देशन में अनेक शोधार्थियों ने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आप विद्यार्थी जीवन से ही साहित्य साधना कर रहीं हैं। अब तक आपकी 3 कला संकलन, 2 उपन्यास, 1 एकांकी संग्रह, 4 छत्तीसगढ़ी कला संकलन व 3 विश्वविद्यालय संदर्भित ग्रन्थ प्रकाशित हो चुकी है। आपकी पुस्तकों पर 10 लघु शोध प्रबंध लिखा जा चुका है। आपको सन् 1976 में मध्यप्रदेश शासन पंचायत विभाग से काव्य संकलन ‘क्वांर की दुपहरी’ के लिए पुरस्कार मिल चुका है तथा अब तक आपको अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है। सामाजिक क्षेत्र में आप सन् 1966 से सक्रिय हैं। आप समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाती रही हैं। आपने फिरका तोड़ आंदोलन एवं कुर्मी एकता के लिए लगातार काम किया है। आप मनवा कुर्मी क्षत्रिय महिला समाज की प्रथम अध्यक्ष चुनी गई। इन्हीं वर्षों में आपने कुर्मी समाज के सभी फिरकों के लिए कुर्मी बोर्डिंग रायपुर में युवक-युवती परिचय सम्मेलन प्रारंभ किया। फलस्वरूप कई अंतरउपजातीय वैवाहिक सम्बन्ध बने। आप कुशल वक्ता, शिक्षाविद, साहित्यकार व अग्रणी समाज सेविका हैं।

कृतियाँ
नाटक : बुतखाना
छत्तीसगढ़ी कथा : गोठ, सउत कथा
काव्य : निःशब्द सृजन, क्वांर की दुपहरी, काला सूरज
उपन्यास : प्रेरणा बिन्दु से निर्वेट तट तक, एक पुरुष
ध्वनि रूपक : अभिशप्‍ता, वंशनाम, मातृत्व का विद्रोह
शोध ग्रंथ : संत धर्मदास – व्यक्तित्व व कृतित्व (कबीरपंथ के प्रवर्तक)
संदर्भ ग्रंथ : छत्तीसगढ़ी लोकसाहित्य और नवजागरण, छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की जमीन
संपादित ग्रंथ : छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य


डॉ.सत्यभामा आडिल
पता : श्रद्धा विलास, एम.आई.जी.5, सेक्टर 1, शंकर नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
फोन नं.: 0771 2428099

 

आइए सुनते हैं मंगरोहन गीत…

हरियर हरियर, जामुन डारा दिखत
जामुन डारा दिखत
पिंयर पिंयर, बांसे रे भाई
पिंयर पिंयर बांसे~
हां हां पिंयर पिंयर, बांसे रे भाई
पिंयर पिंयर बांसे~

बांसे ले निकलय, करण बेंगी सुवा ना
करण बेंगी सुवा ना
ते बईठे लिमउवा के, डारे रे भाई
बईठे लिमउवा के डारे~
हां हां बईठे लिमौवा के, डारे रे भाई
बईठे लिमौवा के डारे~

कोन तोर लावय नोनी, हरियर जामुन डारा
हरियर जामुन डारा
कोन तोर लावय पिंयर, बांसे नोनी वो
कोन तोर लावय पिंयर बांसे~
हां हां कोन तोर लावय पिंयर, बांसे नोनी वो
कोन तोर लावय पिंयर बांसे~

भांटो तोर लावय नोनी, हरियर जामुन डारा
हरियर जामुन डारा
भईया तोर लावय पिंयर, बांसे नोनी वो
भईया तोर लावय पिंयर बांसे~
हां हां भईया तोर लावय पिंयर, बांसे नोनी वो
भईया तोर लावय पिंयर बांसे~


गायन शैली : ?
गीतकार : ?
रचना के वर्ष : ?
संगीतकार : ?
गायन : रेखा देवार
संस्‍था/लोककला मंच : ?

यहाँ से आप MP3 डाउनलोड कर सकते हैं

गीत सुन के कईसे लागिस बताये बर झन भुलाहु संगी हो …

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