सावन-भादों के महीने में जब धान के खेतों में निंदाई (निंजानी/निराई) का काम चल रहा होता तब बस्तर अंचल के हल्बी और भतरी परिवेश में ‘कहनी कुरिन (लोक कथा वाचिका)’ या ‘कहनी कुरेया (लोक कथा वाचक)’ की पूछ-परख बढ़ जाया करती। चूँकि ये गीत रूप में लोक कथा सुनाते हैं, इसलिये इन्हें ‘गित कुरिन (लोक गीत गायिका)’ या ‘गित कुरेया (लोक गीत गायक)’ भी कहा जाता है। वैसे ‘गित कुरिन’ या ‘गित कुरेया’ लोक गीत गाने वाले को ही कहा जाता है किन्तु आवश्यक नहीं कि वह लोक गीत गाने के साथ-साथ लोक कथा कहने या गाने में भी पारंगत हो। बहरहाल, जिस किसी के खेत में निंदाई का काम होता वह व्यक्ति प्रायः इस प्रयास में रहता कि उसके खेत में गाँव-पारा (गाँव-मोहल्ला) की ख्यात ‘कहनी कुरिन’ या ‘कहनी कुरेया’ जरूर रहे। कारण, उसकी उपस्थिति इस बात के लिये आश्वस्त करती थी कि उस खेत में निंदाई के लिये गाँव-पारा के ‘भुती लोगों (मजदूरों)’ की बाढ़ आ जायेगी। उसे केवल किसी एक महिला को इतना भर बतलाना होता था कि ‘फलनी (फलानी)’ ‘कहनी कुरिन’ या ‘फलना (फलाना)’ ‘कहनी कुरेया’ उसके खेत में निंदाई के लिये आ रही/रहा है। बस! फिर उसे किसी और के पास चिरौरी करने जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। ‘कहनी कुरिन’/ ‘कहनी कुरेया’ के आने की बात गाँव-पारा में हवा की तरह फैल जाती और निंदाई के लिये नियत दिन महिलाओं का रेला खेत में आ धमकता। कभी-कभार पुरुष भी निंदाई के लिये आ जाते। कई बार खेत मालिक को बरबस कई ‘भुती लोगों’ से हाथ जोड़ कर वापस चले जाने को कहने की नौबत तक आ जाती। ‘कहनी कुरिन’/ ‘कहनी कुरेया’ गीत के माध्यम से लोक कथाएँ सुनाते निंदाई के काम को अन्जाम देते और उसके साथ-साथ सारे ‘भुती लोग’ भी। लगता ही नहीं कि लोग काम कर रहे हैं। खेत का मालिक आश्वस्त हो जाता कि निंदाई में कोई कोताही नहीं हो रही है। और ऐसा ही होता भी। स्वर लहरी खेत से उठ कर दूर-दूर तक गुञ्जायमान हो उठती। तब ‘कहनी कुरिन’ या ‘कहनी कुरेया’ के अलावा किसी के भी मुँह से एक ‘आखर’ तक नहीं निकलता। वातावरण संगीतमय हो जाता और ‘भुती लोग’ बड़ी ही तन्मयता के साथ कथा सुनते हुए निंदाई में मगन हो जाते। फिर जब घर वापसी का समय होता तो कथा-गीत का रस लेते ‘भुती लोग’ मुँह बिसूरने लगते कि इतनी जल्दी वापसी का समय क्यों हो गया? आज भी कमोबेश यह स्थिति बनी हुई है। कहना न होगा कि काव्य, विशेषतः गीति काव्य में मन-प्राण को बाँध कर रखने की जबरदस्त सामर्थ्य होती है। कारण, इनमें केवल साहित्य ही नहीं अपितु संगीत भी होता है।
अपनी गीति कथाओं से मन-प्राण को बाँधने में समर्थ ऐसे ‘कहनी कुरिन’/ ‘कहनी कुरेया’ गाँव-गाँव में मिल ही जाते हैं। जगदलपुर तहसील के खोरखोसा गाँव की लुदरी माहरिन अपने समय की ख्यात ‘कहनी कुरिन’ और ‘गित कुरिन’ रही हैं। इसी तरह इसी गाँव के सुकालू बैहा का नाम भी ‘गित कुरेया’ और ‘कहनी कुरेया’ के रूप में काफी प्रसिद्ध रहा है। सुकालू बैहा को चइत परब नामक लोक गीत गाने में विशेष दक्षता हासिल थी। यह मेरा दुर्भाग्य ही है कि इन दोनों में से किसी के भी गीत या कहानी मेरे संग्रह में नहीं हैं, अलबत्ता लुदरी माहरिन के गाये “तिजा जगार” का एक छोटा-सा अंश मैं उनके लगभग अन्तिम समय में ध्वन्यांकित कर सका। ये दोनों ही दिवंगत हो चुके हैं। मेरे संग्रह की सभी ‘कहनी कुरिनें’ और ‘कहनी कुरेया’ अपने-अपने क्षेत्र के जाने-माने ‘कहनी कुरिन’ और ‘कहनी कुरेया’ रहे हैं। इन ‘कहनी कुरिन’ और ‘कहनी कुरेया’ द्वारा गायी गयी गीति कथाओं में लोक संगीत का माधुर्य सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
प्रस्तुत गीति कथा “सुरिज राजा आउर हिरा-पोंहरा रानी” की ‘कहनी कुरिन’ हैं खोरखोसा गाँव की ही लगभग 55-60 वर्षीय दसमी बाई। वे इसी गाँव की ‘कहनी कुरिन’ और ‘गुरुमाय (जगार गायिका)’ लुदरी माहरिन और खुटीगुड़ा गाँव की सुप्रसिद्ध ‘गुरुमाय (जगार गायिका)’ देवला गुरुमाय को अपनी गुरुमाता मानती हैं। दसमी बाई ‘गित कुरिन’ और ‘कहनी कुरिन’ दोनों ही हैं। चाहे वह ‘खेल गीत’ हो या ‘बिहाव गीत’ अथवा ‘कहनी-कन्तली’ हो या कि ‘तिजा जगार’ और ‘लछमी जगार’; दसमी बाई को सभी तरह के गायन में महारत हासिल है। गीति कथाओं के गायन में ‘कहनी कुरिन’ अथवा ‘कहनी कुरेया’ का साथ एक और साथी (सह गायक) देता है जिसे ‘पाली धरतो लोग’ अथवा ‘पाली धरेया’ अथवा ‘पालेया’ कहा जाता है। यह साथी प्रायः प्रशिक्षु होता है।
प्रस्तुत “सुरिज राजा आउर हिरा-पोंहरा रानी (सुरिज राजा और हीरा-पोंहरा रानी)” शीर्षक गीति कथा का कथा-सार इस तरह है…
सुरिज राजा की दो पत्नियाँ थीं, हिरा (हीरा) और पोंहरा। राजा अपनी दोनों रानियों के साथ बहुत ही आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन की बात। दोनों रानियों को ‘जगार’ के आयोजन का सपना आता है। तब वे अपने घर में ‘जगार’ के आयोजन का प्रस्ताव सुरिज राजा के समक्ष रखती हैं। इस पर सुरिज राजा उन्हें इस सम्बन्ध में अपने बड़े भाई माहादेव (महादेव) और भौजी पारबती (पार्वती) से मशविरा करने को कहते हैं। तब वे दोनों रानियाँ माहादेव-पारबती के पास जाती हैं और उनसे अपने मन की बात कहती हैं। माहादेव पोथी-पंचांग देखने के बाद बताते हैं कि ‘जगार’ का आयोजन उनके हित में नहीं है। हिरा और पोंहरा वहाँ से अपने घर लौट आती हैं और माहादेव की बात से असहमत होते हुए ‘जगार’ आयोजन के लिये अपने पति सुरिज राजा से कहती हैं। सुरिज राजा कहते हैं कि यदि बड़े भाई ने आयोजन की सहमति दी है तो वे सहर्ष आयोजन करें अन्यथा नहीं। इस पर वे माहादेव द्वारा कही गयी बात सुरिज राजा से नहीं बतातीं और आयोजन कर डालती हैं। इसी आयोजन के दौरान वे भित्ति पर चित्रांकन करती हैं किन्तु उनका चित्रांकन पूरा ही नहीं होता। तभी उपरपुर (ऊर्ध्वलोक) की मालती रानी उस भित्ति पर अपनी छाया छोड़ देती हैं, अर्थात् भित्ति पर चित्र-रूप में प्रगट हो जाती हैं। यह देख कर दोनों रानियों के होश फाख्ता हो जाते हैं। वे यह सोच कर चिन्तित हो जाती हैं कि इस चित्र को देख कर सुरिज राजा मालती रानी पर मोहित हो जायेंगे और उससे विवाह करने की ज़िद ठान बैठेंगे। इस तरह चिन्ता करते हुए वे दोनों भित्ति पर से उस चित्र को मिटाने का प्रयास करने लगती हैं किन्तु बहुतेरे प्रयासों के बाद भी वह चित्र नहीं मिटता। इसी समय सुरिज राजा कचहरी से वापस लौटते हैं और उस चित्र को देख लेते हैं। चित्र देखते ही वे उस पर मोहित हो जाते हैं और मालती रानी से विवाह की ज़िद करने लगते हैं। हिरा-पोंहरा रानियाँ सुरिज राजा को समझाने-बुझाने की कई कोशिशें करती हैं किन्तु राजा उनकी बात सुनते ही नहीं और ठिबू घसिया को बुलवाने को कहते हैं। उनके कहने पर ठिबू को बुलवाया जाता है। उसके आने पर सुरिज राजा उससे अपने मन की बात कहते हैं। तब ठिबू उन्हें सांत्वना देता है और एक दिन वे दोनों मालती रानी की खोज में ‘उपरपुर’ जाते हैं। जब वे मालती रानी को खोजते ‘उपरपुर’ पहुँचते हैं तब उन्हें मालूम होता है कि मालती रानी तो बोद राजा की पत्नी हैं। किन्तु यह तथ्य जानने के बाद भी सुरिज राजा अपनी ज़िद पर अड़े रहते हैं और येन-केन प्रकारेण मालती रानी को पाने का यत्न करने लगते हैं। इसी यत्न में वे ठिबू के कहने पर अपने शरीर के मैल से ‘निलकँट भँवरा (नीलकण्ठ भौंरा)’ बना कर उसे मालती रानी के पास भेजते हैं। वह भौंरा मालती रानी के पास पहुँचता है और उन पर ‘जलका (मोहनी)’ डाल देता है। तब मालती रानी ‘जलका’ के वशीभूत हो अपने पति बोद राजा से छल करती है और सुरिज राजा के पास चली जाती है। सुरिज राजा उसे वहाँ से ले कर अपने राज्य लौटते हैं और तीनों रानियों के साथ सुख पूर्वक जीवन यापन करते हैं।
इसी तरह की कथा यहाँ के लोक महाकाव्य ‘लछमी जगार’ में भी आती है जिसमें ‘नरायन राजा’ ‘माहालछमी’ के चित्र को देख कर उनसे विवाह करने की ज़िद ठान बैठते हैं और अन्ततः अपनी भौजी ‘पारबती रानी’ के सहयोग से वे ‘माहालखी (माहालछमी, महालक्ष्मी)’ से विवाह करने में सफल हो जाते हैं।
प्रस्तुत गीति कथा की अवधि लगभग डेढ़ से दो घन्टे है किन्तु यहाँ केवल एक अत्यन्त छोटा-सा अंश ही प्रस्तुत किया जा रहा है। उद्देश्य है बस्तर की अति समृद्ध वाचिक परम्परा की बानगी प्रस्तुत करना।
© सर्वाधिकार सुरक्षित
आलेख व संकलन : श्री हरिहर वैष्णव
सम्पर्क : सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़।
दूरभाष : 07786-242693
मोबाईल : 93004 29264, 76971 74308
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in, hariharvaishnav@gmail.com
प्रस्तुत है गीतांश…
सुरिज राजा मोर आसे एबे
हीरा-पोंहरा मोर रानी एबे जे
नवखँड माहाल आसे जानू जे
नवखँड माहाल आसे
राजा-रानी आसोत जानू जे
राजा-रानी आसोत
सोर होउन जासोत जानू जे
सोर होउन जासोत
राजा-राजा तुमी सुना राजा
राजा-राजा तुमी सुना राजा जे
अमचो बातो सुना राजा जे
आमचो बातो सुना
हीरा-पोंहरा रानी बलसोत जे
हीरा-पोंहरा रानी
साँगुन आले जासोत जानू जे
साँगुन आले जासोत
जिव रत ले खाऊँ रानी
धन आसे मोर माल आसे जे
राजो-पाटो आसे रानी जे
राजो-पाटो आसे
जिव रत ले खाऊँ रानी जे
जिव रत ले खाऊँ
काईं सादो नाईं रानी जे
काईं सादो नाईं
सुरिज राजा बलसोत जानू जे
सुरिज राजा बलसोत
हीरा-पोंहरा मोर राँदो-बाड़ो
हीरा-पोंहरा मोर राँदो-बाड़ो जे
खाना-पिना करला जानू जे
खाना-पिना करसोत
सात बानी सागो जानू जे
एक बानी भातो
सुरिज राजा के देसोत जानू जे
सुरिज राजा के देसोत
खाउक आले बसला जानू जे
जेवनार बसुन गेला
सात बानी सागो जानू जे
एक बानी भातो
सुरिज राजा खादला जानू जे
हिरा-पोंहरा रानी
खाउन आले गेला जानू जे
खाउन आले गेला
खाना-पिना मोर करला एबे
पलँग थाने मोर बसला एबे जे
लुँग-सुपारी खादला जानू जे
पान-बिड़ी खादला
इसू चो हेंव चो गोठो जानू जे
दुक चो सुक चो गोठो
भात खाउन सोवला जानू जे
भात खाउन सोवला
पहिल निंद तो आय जानू जे
पहिल निंद तो आय
पहिल निंदे सपनात रानी जे
पहिल निंदे सपनात
काय सुन्दर मोर जगार सपना
काय सुँदर मोर जगार सपना जे
सपना सपनुन जासोत रानी जे
सपना सपनुन जासोत।
क्षेत्र : बस्तर (छत्तीसगढ़)
लोक भाषा : हल्बी
गीत-प्रकार : लोक गीत
गीत-वर्ग : गीति कथा (कथा गीत)
गीत-प्रकृति : कथात्मक
गीतकार : पारम्परिक
गायिका : दसमी बाई, (ग्राम खोरखोसा, तहसील जगदलपुर, जिला बस्तर)
ध्वन्यांकन : 1996
ध्वन्यांकन एवं संग्रह : हरिहर वैष्णव
यहाँ से आप MP3 डाउनलोड कर सकते हैं
गीति कथा सुन के कईसे लागिस बताये बर झन भुलाहु संगी हो …
Harihar Vaishnav
अगस्त 06, 2011 @ 09:29:15
Suduur Bastar ke anaam lok gaaykon ko CGSONGS par prastut karne ke aapke is mahaan prayaas ko mujh akinchan Bastariyaa kaa kotishah pranaam.
cgsongs
अगस्त 06, 2011 @ 09:37:18
इस गीति कथा को मुझे भेजने हेतु मैं आपका आभारी हूं साथ ही मैं दसमी जी को भी धन्यवाद देता हूं। इस कार्य में आपका सहयोग पाकर मैं गदगद हूं, अपना सहयोग व आशीष इसी तरह बनाए रखियेगा … प्रणाम
राहुल सिंह
अगस्त 06, 2011 @ 09:34:16
वाह, अमूल्य संग्रह हो रहा है आपके इस ब्लाग पेज पर. हम सब के लिए गर्व का विषय है, ऐसी सामग्री का आना.
cgsongs
अगस्त 06, 2011 @ 09:44:08
ये सब आप सभी सहयोगी व सचेतकों के सहयोग के बिना अधूरा हैं, संग्रहण के इस प्रयास में मेरा साथ देने के लिए आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद व आभार
kaushalendra
अगस्त 06, 2011 @ 14:13:09
खेती-किसानी, शादी-ब्याह, विरह……… आदि के लोक गीतों में भारत के गाँवों की संस्कृति के दर्शन होते हैं. वैष्णव जी ! लोकगीत संग्रह का आपका यह प्रयास किसी दिन अमूल्य होगा.
Harihar Vaishnav
अगस्त 07, 2011 @ 20:39:00
Aapne aur shri Rahul Singh jii ne is prayaas ko tawajjo dii iske liye main aap donon kaa hriday se aabhaarii hun Kaushalendra jii.
उमेश प्रधान
अगस्त 08, 2011 @ 11:20:29
” सुरिज राजा मोर आसे एबे ” सुना बहुत अच्छा लगा आगे भी ऐसी ही लोक संगीत वेब पर जारी करते रहिये
Nettie
अगस्त 10, 2011 @ 20:55:45
Such a deep aswner! GD & RVVF
एमन दास मानिकपुरी
अगस्त 12, 2011 @ 13:22:49
good,,,,
kewalkrishna
सितम्बर 16, 2011 @ 12:25:19
वैष्णवजी, सादर प्रणाम
अभूतपूर्व काम कर रहे हैं, नमन। लालाजी के असल वंशज हैं आप। सिलसिला जारी रखिएगा।