विश्व की अनेकानेक जनजातीय संस्कृतियों की तरह ही बस्तर की आदिवासी एवं लोक संस्कृति में भी संगीत का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जन्म से ले कर मृत्यु पर्यन्त संगीत यहाँ के जनजीवन को आप्लावित करता रहा है। संगीत के आदि जनक के रूप में जहाँ गोंडी परिवेश में लिंगो पेन का नाम लिया जाता है वहीं हल्बी-भतरी परिवेश में बुढ़ा देव का। लिंगो पेन और बुढ़ा देव दोनों ही अपने-अपने परिवेश में नटराज के रूप माने गये हैं। गोंडी परिवेश में संगीत के आविर्भाव को ले कर भिन्न-भिन्न कथाएँ प्रचलित हैं। एक के अनुसार लिंगो को संगीत का ज्ञान उसके जन्म के साथ ही था जबकि दूसरी कथा के अनुसार उसे नृत्य और गायन का ज्ञान मधुमक्खियों से हुआ। चेलिक (युवक) और मोटियारिनों (युवतियों) को अन्य प्रकार की शिक्षा के साथ ही संगीत-शिक्षा भी घोटुल से प्राप्त होती रही है। और घोटुल का प्रणेता और नियामक भी लिंगो पेन को ही माना गया है।
संगीत को आदिकाल से देवाराधना का माध्यम माना जाता रहा है, जिसमें कोई संशय नहीं है। प्रारम्भिक तौर पर संगीत वनांचलों में रहने वाले विभिन्न समुदायों के मनोरंजन का एक मात्र माध्यम रहा है। मनोरंजन के साथ-साथ देवोपासना और विभिन्न सामाजिक-धार्मिक संस्कारों एवं कर्म-काण्डों से भी इसका नाता जुड़ा और इस तरह यह जन-जीवन का अभिन्न अंग बन गया। अन्य जनपदों की तरह बस्तर के जनजातीय और लोक जीवन में भी जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी संस्कारों में गीत-संगीत की प्रधानता सहज ही देखी जा सकती है। यहाँ बच्चे के जन्म पर यदि ‘पुटुल पाटा’ गाया जाता है तो उसे पालने में झुलाने का गीत ‘जोल पाटा’ या निद्रा के आह्वान के लिये ‘जोजोली गीत’ (लोरी) भी गाया जाता है। बच्चा जब बड़ा हो जाता है और गलियों में खेलने लगता है तब वह गाता है ‘खेल गीत’। और विवाह के समय तो विवाह के प्रत्येक नेंग के लिये ‘मरमी पाटा’ या ‘पेंडुल (पंडुल) पाटा’ या ‘बिहाव गीत’ गाये जाते हैं। खलिहान के गीत ‘कड़ा पाटा’, देवोपासना के गीत ‘पेन पाटा’ और मृत्यु गीत ‘आमुर पाटा’ भी प्रचलन में हैं।
बस्तर के लोक संगीत से मेरा प्रारम्भिक परिचय यहाँ के ग्रामीण परिवेश में जनमने, पलने और बढ़ने के कारण तो था ही किन्तु इस परिचय का दायरा मैंने अपने ननिहाल खोरखोसा में होने वाले विभिन्न आयोजनों, विवाह और युवक-युवतियों के खेल के दौरान कई बार केवल दर्शक और कई बार सहभागी के रूप में सक्रिय सहभागिता एवं बातचीत के जरिये बढ़ाया और उसे लिपिबद्ध करने का प्रयास किया। मैं लगभग 12 वर्ष की आयु से ही इससे जुड़ा रहा हूँ। कई गीत ऐसे भी थे जिनके बोल याद रख पाना कई बार कठिन भी होता था। ऐसे में मैं 15 वर्ष की आयु (1970) से इन्हें सुन-सुन कर और अपनी याददाश्त पर जोर दे कर लिपिबद्ध करने लगा था किन्तु यह संग्रह व्यवस्थित नहीं था। कारण, कभी यह सोचा ही नहीं था कि आगे चल कर इन्हें किसी भी रूप में प्रस्तुत किया जा सकेगा। मैं तो केवल कौतूहलवश किन्तु पूरे मनोयोग से इनका संग्रह करता आ रहा था। कभी किसी लोक गायक के पास बैठ गया और उसे गाते हुए पा कर गीत को लिपिबद्ध करने का प्रयास करने लगा। ऐसे लोक गायकों में मेरे मामाजी (स्व.) शंकरदास वैष्णव जी भी थे। वे सुपरिचित नाट गुरु भी थे। जब कभी मैं अपने ननिहाल जाता, उनके पास बैठ जाता और उन्हें गीत गाने को कहता। वे बड़ी खुशी से गीत गाते और मैं लिखता जाता। किन्तु यह लिखना बहुत सही इसीलिये नहीं था कि मैं उनके गायन के साथ लिख नहीं पाता था। ऐसे में वे गीत की पंक्तियाँ मेरे लिये कई-कई बार दुहराया करते थे। तब मुझे आशुलिपि की भी कोई जानकारी नहीं थी। फिर भी जैसे-तैसे मैंने इसी विधि से कई लोक गीत लिपिबद्ध किये। यह कठिन तो था किन्तु असम्भव नहीं। फिर कुछ वर्षों बाद, 1982 से, टेप रिकार्डर पर इन्हें टेप रिकार्ड करने लगा था, जो अधिक सुविधाजनक था किन्तु तब मेरे पास स्वयं का टेप रिकार्डर नहीं था। किसी और के टेप रिकार्डर का उपयोग किया करता था। किन्तु अन्ततः मँगनी के टेप रिकार्डर का उपयोग कब तक कर पाता! फिर 1983 में खुद का एक टेप रिकार्डर खरीदा और गीतों की रिकार्डिंग करने लगा। इसके लिये मैं प्रत्येक अवकाश के दिनों को चुनता और निकल पड़ता गाँवों की ओर। अवकाश के दिनों में गाँव-गाँव भटकते हुए लोक गीतों की टेप रिकार्डिंग करना मेरा सबसे प्रिय शगल बन गया था। कई बार गायकों के अनुरोध पर मुझे उनकी सहूलियत के हिसाब से कार्य दिवसों में भी अवकाश ले कर लोक गीतों की रिकार्डिंग के लिये गाँव जाना पड़ता। फिर गीतों के साथ-साथ लोक गाथाओं, लोक कथाओं, मिथ कथाओं, लोकोक्तियों, मुहावरों और पहेलियों का भी संग्रह करने लगा। इस तरह गाँव-गाँव घूम कर मैंने सैकड़ों लोक गीत, लोक गाथाएँ, लोक कथाएँ, मिथ कथाएँ, लोकोक्तियाँ, मुहावरे और पहेलियाँ टेप रिकार्ड किये। परिणाम-स्वरूप आज मेरे पास लगभग 500 घन्टे की ध्वन्यांकित सामग्री (लोक गीत, मिथ कथाएँ, लोक कथाएँ, लोक महाकाव्य, गीति कथाएँ, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ) संग्रहीत है।
बहरहाल। छत्तीसगढ़ में बस्तर अंचल के हल्बी-भतरी परिवेश में ‘जगार गीत’ या ‘धनकुल गीत’ गायन की सुदीर्घ परम्परा रही है। चूँकि ये गीत ‘धनकुल’ नामक तत वाद्य की संगत में गाये जाते हैं इसीलिये इन गीतों को ‘धनकुल गीत’ भी कहा जा सकता है; और चूँकि ‘धनकुल’ वाद्य का वादन विभिन्न 4 जगारों के गायन के समय ही होता है इसीलिये इन गीतों को ‘जगार गीत’ भी कहा जाता है।
वस्तुतः ये चारों जगार पूर्णतः वाचिक परम्परा के सहारे पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुखान्तरित होते आ रहे लोक महाकाव्य हैं। ये लोक महाकाव्य हैं आठे जगार, तीजा जगार (धनकुल), लछमी जगार और बाली जगार।
धनकुल लोक वाद्य का प्रचलन हल्बी-भतरी परिवेश के अतिरिक्त ओड़िया (ओड़िसा के नवरंगपुर, कोरापुट, गंजाम जिले) तथा छत्तीसगढ़ी (छत्तीसगढ़ के काँकेर एवं धमतरी जिलों के पूर्वी भाग) परिवेश में भी देखने में आया है किन्तु गोंडी, धुरवी, परजी तथा दोरली परिवेश में नहीं। ‘धनकुल’ नामक इस तत वाद्य का वादन प्रायः दो जगार गायिकाएँ करती हैं। इन जगार गायिकाओं को ‘गुरुमायँ’ (अथवा गुरुमाय) कहा जाता है। हमें इन गायिकाओं का आभारी होना चाहिये कि इन्होंने लोक संस्कृति के इस महत्त्वपूर्ण उपादान को निष्ठा एवं यत्नपूर्वक अब तक अक्षुण्ण बनाये रखा है। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।
‘धनकुल’ वाद्य हाँडी, सूपा, और धनुष के संयोजन से तैयार अद्भुत लोकवाद्य है। धनुष का ‘धन’ और कुला (ओड़िया में कुला का अर्थ सूपा) का ‘कुल’; सम्भवतः इन्हीं दो शब्दों के मेल से बने ‘धनकुल’ शब्द को इस वाद्य के नामकरण के लिये उपयुक्त पाया गया होगा। जमीन पर दो ‘घुमरा हाँडियाँ’ “आँयरा’ या ‘बेंडरी’ के ऊपर तिरछी रखी जाती है। ये हाँडियाँ समानान्तर रखी जाती हैं। ‘आँयरा’ या ‘बेंडरी’ धान के पैरा (पुआल) से बनी होती है। तिरछी रखी ‘घुमरा हाँडियों’ के मुँह को ‘ढाकन सुपा’ से ढँक दिया जाता है। इसी ‘ढाकन सुपा’ के ऊपर ‘धनकुल डाँडी’ का एक सिरा टिका होता है तथा दूसरा सिरा ज़मीन पर। ‘धनकुल डाँडी’ की लम्बाई लगभग 2 मीटर होती है। इसके दाहिने भाग में लगभग 1.5 मीटर पर 8 इंच की लम्बाई में हल्के खाँचे बने होते हैं। गुरुमायें नियमित अन्तराल पर दाहिने हाथ में ‘छिरनी काड़ी’ से ‘धनकुल डाँडी’ के इसी खाँचे वाले भाग में घर्षण करती हैं तथा बायें हाथ से ‘झिकन डोरी’ को हल्के-हल्के खींचती हैं। घर्षण से जहाँ ‘छर्-छर्-छर्-छर्’ की ध्वनि निःसृत होती है वहीं डोर को खींचने पर ‘घुम्म्-घुम्म्’ की ध्वनि ‘घुमरा हाँडी’ से निःसृत होती है। इस तरह ‘घुम्म्-छर्-छर् घुम्म्-छर्-छर्’ का सम्मिलित संगीत इस अद्भुत लोक वाद्य से प्रादुर्भूत होता है। धनकुल वादन-गायन के पूर्व गुरुमायें इस वाद्य की श्रद्धा पूर्वक पूजा-अर्चना करती हैं।
खेतों में धान की फसल पकने के साथ ही ‘लछमी जगार’ का आयोजन गाँव-गाँव में होने लगता है। यह आयोजन प्रायः माघ महीने तक चलता रहता है। धान्य-देवी महालक्ष्मी की कथा इस जगार की कथावस्तु होती है। यह हल्बी जनभाषा में गाया जाता है। लछमी जगार की कथा भिन्न-भिन्न क्षेत्र में भिन्न-भिन्न है। सरगीपालपारा, कोंडागाँव की गुरुमायँ सुकदई कोराम, गागरी कोराम तथा पलारी की गुरुमायँ कमला बघेल और कुम्हारापारा, कोंडागाँव की गुरुमायँ सुकली के गाये लछमी जगार की कथा में साम्य है जबकि बम्हनी की गुरुमायँ आसमती, मुलमुला की गुरुमायँ मंदनी पटेल, खोरखोसा की गुरुमायें रैमती, सरसती, उसाबती, केलमनी और जयमनी तथा दसमी के गाये लछमी जगार की कथा एकदम भिन्न किन्तु सभी गाथाओं में लछमी यानी लक्ष्मी की ही कथा वर्णित होती है।
लछमीजगार का आयोजन प्रायः कार्तिक महीने में नवाखानी के बाद आरम्भ हो जाता है किन्तु अगहन के महीने को इसके लिये सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता है। अगहन का महीना लक्ष्मी का समय माना जाता है। महत्त्वपूर्ण दिन होता है बड़ा जगार का। यानी जगार का अन्तिम दिन। और यह अन्तिम दिन होता है गुरुवार। जगार चाहे पाँच दिन का हो या सात अथवा नौ या ग्यारह दिनों का। समाप्ति गुरुवार को ही होती है। लछमीजगार अन्न लक्ष्मी की पूजा का महोत्सव है। इस लोक महाकाव्य में सृष्टि की उत्पत्ति की कहानी है, धान की उत्पत्ति की कहानी है और इसमें वर्षा की भी कहानी है। इसमें वर्ण या रंग भेद का कोई स्थान नहीं है।
यह उत्सव प्रायः सामूहिक रूप से आयोजित किया जाता है, जिसे गाँवजगार कहा जाता है। कई बार मनौती मानने वाले व्यक्तिगत रूप से भी इसका आयोजन करते हैं किन्तु आयोजन में भाग सभी लेते हैं। कम से कम पाँच तथा अधिकतम ग्यारह दिनों तक चलने वाले इस उत्सव के आयोजन-स्थल प्रायः देवगुड़ी अर्थात् मन्दिर होते हैं। आयोजन-स्थल को लीप-पोतकर सुंदर ढंग से सजाया जाता है। दीवार पर भित्तिचित्र अंकित किए जाते हैं। इन चित्रों में जगार की कथा संक्षेप में अंकित होती है। ये भित्तिचित्र तीजा जगार में भी अंकित किए जाते हैं, जिनमें तीजा जगार की कथा संक्षेप में अंकित होती है। चित्रांकन का कार्य लोक चित्रकारों द्वारा किया जाता है। इन चित्रों को ‘गड़’ तथा चित्रांकन को “गड़ लिखतो’ कहा जाता है।
प्रस्तुत अंश गुरुमाय केलमनी और जयमनी द्वारा गाये गये ‘लछमी जगार’ के तीसरे अध्याय से लिया गया है। इस अध्याय में कुल 95 पद हैं जिनमें से महज 12 पद यहाँ प्रस्तुत हैं। कुल 3734 पदों (26261 पंक्तियों) में समाया यह लोक महाकाव्य कुल 33 अध्यायों में नियोजित है और इसके गायन की कुल अवधि है लगभग 24 घन्टे। यह जगार धान्य देवी की अद्भुत महागाथा है। गुरुमाय केलमनी ने इस महाकाव्य के गायन की शिक्षा ली अंचल की सुप्रसिद्ध जगार गायिका गुरुमाय देवला से।
इस अध्याय (राज रचना : सृजन) की कथा इस प्रकार है : भुरुँग ऋषि तपस्या कर रहे थे। उधर पाँचे पँडवा राजा आपस में विचार करने लगे कि जो जगार हमने रखा है उसका नाम लछमी जगार रहे। फिर वे सृष्टि-रचना के विषय में भी सोचने लगे। बरुन और कुबेर राजा ने बिहिर (बावलीनुमा कुआँ) खोदा और बुरँदाबन से सुरई माता को बुला कर उनसे गोरस देने को कहा। उनके गोरस से कुआँ भर गया। तब बरुन और कुबेर ने हिमगिरि पर्वत को ला कर उस कुएँ में डाल दिया। पर्वत सीधे पाताल लोक जा पहुँचा। तब भगवान कच्छप रूप धर कर उस पर्वत को उठा लाये और फिर से कुएँ में डाल दिया। फिर बासुकी नाग को बुलाया गया। उसकी डोर बना कर उस बिहिर का मन्थन किया गया। मन्थन से मनुष्य, कीड़े-मकोड़ों, जीव-जन्तुओं, डोंगरी-पहाड़ी आदि का आविर्भाव हुआ। मन्थन से थके बासुकी नाग ने विष वपन किया जिसे माहादेव ने ग्रहण कर लिया। वह नीलकण्ठ हो गये।
भगवान ने भोज्य-सामग्री पैदा की और 5 भाग बना कर मनुष्य जाति के उन पाँचों लोगों से अपने-अपने हिस्से उठाने को कहा और उन 5 भाइयों को 5 कुलों तथा 50 जातियों में वर्गीकृत कर दिया।
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आलेख, संकलन : श्री हरिहर वैष्णव
सम्पर्क : सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़।
दूरभाष : 07786-242693
मोबाईल : 76971 74308
ईमेल : hariharvaishnav@gmail.com
प्रस्तुत है ‘लछमी जगार’ का अंश …
गुरुमाय केलमनी और जयमनी द्वारा प्रस्तुत
बस्तर की धान्य देवी की महागाथा
लछमी जगार
अधया-03 राज रचना ||50|| ||51|| ||52|| ||53|| ||54|| ||55|| ||56|| ||57|| ||58|| ||59|| ||60|| ||61|| |
अध्याय-03 सृजन |
क्षेत्र : बस्तर (छत्तीसगढ़)
भाषा : हल्बी
गीत-प्रकार : लोक गीत
गीत-वर्ग : 05-आनुष्ठानिक गीत, जगार गीत (अ) लछमी जगार
गीत-प्रकृति : कथात्मक, लोक महाकाव्य
गीतकार : पारम्परिक
गायन : गुरुमाय केलमनी और जयमनी (ग्राम खोरखोसा, तहसील जगदलपुर, बस्तर)
ध्वन्यांकन : 2005
ध्वन्यांकन एवं संग्रह : हरिहर वैष्णव
यहाँ से आप MP3 डाउनलोड कर सकते हैं
जगार सुन के कईसे लागिस बताये बर झन भुलाहु संगी हो …
cgsongs
दिसम्बर 25, 2011 @ 07:19:19
जगार से सम्बंधित जानकारी और गीत छत्तीसगढ़ी गीत संगी को उपलब्ध कराने के लिए श्री हरिहर वैष्णव जी को बहुत बहुत धन्यवाद, आभार
राहुल सिंह
दिसम्बर 25, 2011 @ 08:04:07
अद्भुत, असीम आनंददायक.
Harihar Vaishnav
दिसम्बर 25, 2011 @ 17:45:54
Aap sabhii kaa aabhaar.
Subhojit ghosh
दिसम्बर 26, 2011 @ 16:11:14
Its a excellent job done by rajesh chandrakar
vitendravitendra panigrahi
दिसम्बर 29, 2011 @ 14:10:16
madiyaa folk dance shot at the original venue by vitendra panigrahi
Harihar Vaishnav
दिसम्बर 29, 2011 @ 17:38:38
Madiyaa lok nrity kii sundar prastuti ke liye dhanywaad bhaaii Vitendr Panigrahii jii. Isii tarah Bastar kii aadivaasii aur lok sanskriti se jude video prastut karte rahein.
parganiha
दिसम्बर 29, 2011 @ 19:32:17
बहुत सुंदर…………